चाँद की आत्मकथा हिंदी निबंध | Autobiography of Moon Essay in Hindi

 

चाँद की आत्मकथा हिंदी निबंध | Autobiography of Moon Essay in Hindi

नमस्कार  दोस्तों आज हम चाँद की आत्मकथा हिंदी निबंध इस विषय पर निबंध जानेंगे। क्या गुनगुना रहे हैं आप? 'शुभ्र ज्योत्स्ना पुलकित यामिनीम्'-धवल चाँदनी में पुलकित रात्रि। कभी देखा भी है ऐसा दृश्य? 'वंदे मातरम् ' के रचयिता ने यह दृश्य देखा था। देखा ही नहीं, रजनी की पुलक का अनुभव भी किया था। जानते हैं, ऐसा मनोहर दृश्य किसकी कृपा से दिखाई देता है? 



मेरी ही कृपा से आप यह दृश्य देख पाते हैं ! मेरे बारे में कुछ जानना चाहते हैं आप? सुन सकेंगे मेरी व्यथाभरी कथा? अच्छा, तो सुनिए।



यह बताना तो असंभव है कि कितने युगों पूर्व मेरा जन्म हुआ था और मेरी जन्मदात्री कौन थीं? हाँ, मैं इतना अवश्य जानता हूँ कि जब से मैंने होश सँभाला है, पृथ्वी की अविरत परिक्रमा करता रहा हूँ। आप लोग मुझे पृथ्वी का उपग्रह मानते हैं, किंतु क्या मैं सचमुच उसका उपग्रह हूँ?



मेरा आकार पृथ्वी के आकार के लगभग चौथाई भाग के बराबर है। कदाचित इसी कारण आप लोगों ने मुझे पृथ्वी का उपग्रह मान लिया है ! कुछ खगोलशास्त्रियों के अनुसार मैं अनंत ब्रह्मांड के किसी कोने से अकस्मात पृथ्वी के समीप आ पहुँचा हूँ और उसके आकर्षण में बँधकर उसकी परिक्रमा करने लगा हूँ। कुछ अन्य खगोलविदों के मतानुसार मेरा जन्म पृथ्वी की कोख से हुआ है-वह मेरी माता है और में उसकी संतान। खगोलशास्त्रियों का एक वर्ग ऐसा भी है, जो पृथ्वी और मेरी उत्पत्ति एक साथ, किसी कॉस्मिक गैस के गोले से मानता है।


 जो भी हो, इस विवाद से क्या लाभ? मैं स्वयं भी इस बारे में अनजान हूँ। क्या कहा? मेरी आयु कितनी है? मेरे पृष्ठ-प्रदेश पर से जो सबसे प्राचीन चट्टान पृथ्वी के लोग ले गए हैं, वह ४ खरब ६० अरब वर्ष पुरानी है। आपका दिमाग चक्कर खाने लगा न? मेरी आयु लगभग उतनी ही बताई जाती है, जितनी पृथ्वी की। इतने वर्षों से मैं अपनी धवल चाँदनी धरती पर बिखेरता आ रहा हूँ। 


इस चाँदनी का भी एक रहस्य है। मुझ में न तो प्रकाश है, न उष्णता। सूर्य की जो किरणें मेरे पृष्ठ-प्रदेश प पृथ्वी की ओर भेज देता हूँ। हाँ, परावर्तित करते समय अपनी करुणा और स्नेह का पुट देकर उन्हें शीतल जरूर बना देता हूँ। इसी परावर्तित प्रकाश को आप लोग 'चाँदनी' कहते हैं।



 मेरे जीवन में पूर्णिमा और अमावस्या, बारी-बारी से आती रहती हैं। मेरे ही आकर्षण के फलस्वरूप समुद्रों में ज्वार आता है। कभी-कभी अमावस्या को मैं सूर्य तथा पृथ्वी के बीच आकर सूर्य की किरणों को पृथ्वी तक पहुँचने से रोक देता हूँ। ऐसे अवसरों पर पृथ्वी से सूर्य का कुछ अंश अथवा कभी-कभी पूरा सूर्य नहीं दिखाई देता।



इस घटना को आप लोग 'सूर्यग्रहण' कहते हैं। किसी-किसी पूर्णिमा को पृथ्वी मेरे और सूर्य के बीच आ जाती है। तब उसकी विशाल प्रच्छाया में मैं कुछ समय के लिए अदृश्य हो जाता है। इस घटना को 'चंद्रग्रहण' कहा जाता है।

पथ्वी की तरह मेरे चारों ओर विभिन्न गैसों से बने हुए वातावरण का सुरक्षात्मक कवच नहीं है। इसलिए दिन के समय मेरा पृष्ठभाग अत्यधिक गर्म हो जाता है और उसका तापमान १२१° सेल्सियस तक पहुँच जाता है। रात के समय बहुत कडी सर्दी पडती है और मेरे पृष्ठ-प्रदेश का तापमान – १५६° सेल्सियस तक गिर जाता है। 



इस भयानक तापांतर के कारण मेरे शरीर पर न तो कोई जीवधारी रह सकता है, न कोई वनस्पति। पथ्वीवासी मेरे वक्ष पर काले दाग देखकर भाँति-भाँति की कल्पनाएँ करते रहे हैं। किसी ने कहा कि मेरे प्रांगण में बैठकर कोई बुढ़िया चरखा कात रही है। किसी के मतानुसार मैं किसी खरगोश को सीने से लगाए हुए हूँ। सच्चाई तो यह है कि अंतरिक्ष से मेरे शरीर पर उल्काओं की वृष्टि होती रहती है।



उनके आघात से मेरे सारे शरीर पर बड़े-बड़े खड्ड बन गए हैं। वहीं पृथ्वीवासियों को काले दाग के रूप में दिखाई देते हैं। मैंने पृथ्वी पर विभिन्न महाद्वीपों को एक विशाल भूखंड से अलग होते और फिर एक-दूसरे के निकट आते देखा है। मैं श्रीराम और रावण के बीच हुए घोर संग्राम का दर्शक रहा हूँ।


मैं महाभारत के सर्वनाशी युद्ध का भी मूक साक्षी रहा हूँ। मैंने पृथ्वी को दो दो बार विश्वयुद्ध की प्रचंड ज्वाला में झुलसते और करोड़ों नर-नारियों के रक्त से स्नान करते देखा है।


एक दिन अचानक मेरे जीवन में एक महत्त्वपूर्ण घटना घटी। वह दिन था २१ जुलाई, १९६९। इस दिन पृथ्वी से भेजा गया अपोलो-११ नामक व्योमयान मेरे पृष्ठ-प्रदेश पर उतरा और उसमें से दो मानव निकले। वे थे-नील आर्मस्ट्राँग व एड्विन ऑल्ड्रिन। 


जब वे मेरे शरीर पर चहलकदमी करने लगे, तो मुझे बहुत खुशी हुई कि प्रकृति की सबसे श्रेष्ठ रचना-मानव के पैर आखिर मुझ पर पड़ ही गए। किंतु मन के किसी कोने में आशंका भी उठी कि मानव-जाति अब मेरे शरीर को भी प्रदूषित कर डालेगी। अब तो यही कामना है कि अंतरिक्ष के किसी ऐसे कोने में चला जाऊँ जहाँ प्रदूषण की छाया भी मुझ तक न पहुँच सके।दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।