काले धन पर निबंध | Black Money Essay in Hindi

 

काले धन पर निबंध | Black Money Essay in Hindi


नमस्कार  दोस्तों आज हम काले धन इस विषय पर निबंध जानेंगे। यह घोर आश्चर्य की बात है कि भारतीय अर्थव्यवस्था और उसके विकास को जिस कारक ने विगत 50 वर्षों से सबसे घातक रूप से प्रभावित किया है उस पर अधिकांश अर्थशास्त्रियों ने कभी गम्भीर चिंतन की जरूरत महसूस नहीं की। औरों की तो बात जाने दीजिए अमर्त्य सेन और सुखमय चक्रवर्ती जैसे दिग्गज अर्थशास्त्री भी उसे नजरअंदाज करते रहे। 


देश में एक-से-एक अच्छी योजनाएँ व नीतियाँ बनीं और विफल रहीं, अर्थशास्त्रियों के विश्लेषण गड़बड़ाते रहे और हर 3-4 वर्ष बाद उन्हें अपने सिद्धान्तों में संशोधन करने के लिए मजबूर होना पड़ता रहा, बावजूद इसके इन सबकी असली जड़ को पकड़ पाने में वे चूक करते रहे। असली चीज रही काली अर्थव्यवस्था।


काले धन की समस्या भारत में स्वतन्त्रता-उपरांत काल से बनी हुई है और विडम्बना यह है कि चाहे इसके बारे में प्रत्यक्ष कर जाँच समिति जिसके अध्यक्ष श्री बांचू थे ने 1971 में हमें सचेत कर दिया था, परन्तु इसके बावजूद काले धन की मात्रा और आकार लगातार बढ़ता गया। 



बांचू समिति ने 1968-69 के लिये काले धन की मात्रा 1,400 करोड़ रुपये आंकी जो कि सकल देशीय उत्पाद का केवल 4.2% थी, परन्तु इस समस्या पर नियन्त्रण न किया जा सका और यह समस्या । बढ़ती गई। समय-समय पर विभिन्न समितियों, अनुसंधान संस्थानों एवं वैयक्तिक अनुसंधानकर्ताओं ने काले धन के अनुमान लगाए। 



सबसे पहला अनुमान 1953-54 में प्रो० एन० काल्डर ने लगाया और काले धन की मात्रा को केवल 600 करोड़ रुपये आंका। उसके बाद बांचू समिति ने इसका 1961-62 के लिए 700 करोड़ रुपये का अनुमान लगाया जो 1968-69 तक बढ़कर 1,400 करोड़ रुपये था; परन्तु 'सकल देशीय उत्पाद के अनुपात के रूप में यह 4% के लगभग था।


1961-62 में 716 करोड़ रुपये से बढ़कर 1976-77 में 8,098 करोड़ रुपये, 1197576, 1980-81 और 1983-84 के बीच काले धन की अभि सीमा ‘सकल राष्ट्रीय उत्पाद' के 18 से 21% के बीच बताई। 1980-81 के लिए 50,977 करोड़ रुपए और 1987-88 के लिए 1,49,297 करोड़ रुपये लगाया।



अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष ने 1982-83 के लिए चालू कीमतों पर काली मुद्रा 72,000 करोड़ रुपए आंकी जो कि 'सकल राष्ट्रीय उत्पाद' का लगभग 50% है। चालू कीमतों पर सकल देशीय उत्पाद 8,43,294 करोड़ रुपए था जबकि चलन में काली मुद्रा 11,00,000 करोड़ रुपए थी। 



इस प्रकार काले धन की मात्रा ‘सकल देशीय उत्पाद' का 13.04% हो जाती है। काले धन सम्बंधी अनुमानों से पता चलता है कि चाहे विभिन्न अनुमान पूर्ण रूप से एक-दूसरे से तुलनीय नहीं समझे जा सकते, किन्तु ये समस्या की बढ़ती हुई प्रवृत्ति की ओर अवश्य संकेत करते हैं और वह यह है कि काले धन की मात्रा उत्तरोत्तर अवधि में बढ़ती ही गई है।


विभिन्न अध्ययनों से निम्नलिखित निष्कर्ष प्राप्त होते हैं(1) काले धन की मात्रा न केवल कुल रूप में, बल्कि 'सकल राष्ट्रीय उत्पाद' के प्रतिशत के रूप में भी निरंतर बढ़ती ही गई है।



(2) काले धन की मात्रा जो 1975-76 तक ‘सकल राष्ट्रीय उत्पाद' के 10% से कम थी, इसके बाद के काल में तेजी से बढ़ने लगी और सार्वजनिक वित्त एवं नीति के राष्ट्रीय संस्थान के अनुमान के अनुसार यह 1983-84 में 18 से 21% हो गई, डॉ० सूरज भान गुप्ता के अनुमान के अनुसार यह 1983-84 में लगभग 46% और 1987-88 में फिर और बढ़कर लगभग 51% हो गई।



(3) काली आय के चलन की वृद्धि दर को सकल राष्ट्रीय उत्पाद में वृद्धि दर से तेज गति प्राप्त है। (4) कराधान की उच्च दरों के कारण व्यापारी एवं उद्योगपति भारी मात्रा में करवंचन के लिए प्रेरित होते हैं। 



(5) हमारी राजनीतिक प्रणाली काली आय की वृद्धि के प्रति आंख झपकती रही परन्तु इस बेहिसाबी आय की वृद्धि को रोकने के लिए इसने कोई ठोस उपाय नहीं किए।



संसद की स्थायी वित्त सीमति ने देश के कर प्रशासन ढांचे की पुरजोर भर्त्सना की और इस भारी मात्रा में काले धन के चलन के लिये कर प्रशासन को जिम्मेदार ठहराया। समिति का मत है कि इस सम्बंध में कर प्रशासन को दिए गए अधिकार बर्बरतापूर्ण हैं और पुराने समाजवादी विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं। 



समिति का मत था कि यदि इन बर्बरतापूर्ण अधिकारों को समाप्त कर दिया जाए, तो कर-राजस्व में तीन गुणा वृद्धि की जा सकती है।



संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट एकांगी है। इसका कारण यह है कि चूंकि इसके सदस्य, विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के सदस्य हैं, इसलिए उन्होंने कर-प्रशासन को इस भयंकर समस्या के लिए दोषी ठहराया उसके अनुसार 



कर-प्रशासन और करवंचकों की मिलीभगत काले धन के जनन का प्रधान कारण है, परन्तु वस्तुस्थिति यह है कि सरकारी नौकरशाह, व्यापारी, राजनीतिक नेता (मंत्री सांसद विधायक) सभी का कर-प्रशासन से गठजोड़ है। परिणामतः हमारी रानीतिक प्रणाली में अस्थिरता आने के परिणामस्वरूप काले धन के चलन में और अधिक तेजी अनुभव की गई। इसका कारण यह है कि काला धन चुनाव लड़ने के लिए मुख्य साधन है।



नए आर्थिक सुधार जिनका उद्देश्य नियंत्रणों को हटाना, लाइसेंस प्रणाली को समाप्त करना  और निजी क्षेत्र को बढ़ावा देना है, से आर्थिक विकास को तो प्रोत्साहन मिल सकता है, परन्तु काले धन को प्रभावी रूप में कम करने में कामयाब नहीं हो सकते।



इस सम्बंध में यह उल्लेख करना उचित होगा कि काले धन को पूर्णतया समाप्त करना तो सम्भव नहीं, परन्तु यदि सरकार दृढ़ निश्चय कर ले और कर-प्रशासन को पूर्ण समर्थन दिया जाए तो इसे सीमित अवश्य किया जा सकता है। 



चाहे आयकर के अफसरों को इसके लिए दोषी ठहराया जाता है, परन्तु वास्तविकता यह है कि जिन अफसरों ने बड़े जोश और ईमानदारी से करवंचकों को पकड़ने का प्रयास किया, उन्हें राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण अपराधियों को छोड़ना पड़ा। परिणामस्वरूप वे हतोत्साहित हो गए और कर प्रशासन का मनोबल गिर गया।




दूसरे, सरकार ने समय-समय पर बहुत-सी संवेच्छिक घोषणा योजनाओं द्वारा करवंचकों को काले धन को सफेद धन में परिवर्तित करने की स्वीकृति दी। 1951 और 1985 के बीच इन योजनाओं से कुल 698 करोड़ रुपये प्राप्त हुए। 



1997 की स्वैच्छिक घोषणा योजना जो सबसे सफल मानी जाती है से 10,100 रु० करोड़ प्राप्त हुए जो अपने आप में एक सराहनीय उपलब्धि थी, परन्तु काले धन की अर्थव्यवस्था का आकार देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे इस प्रयास ने हिम शैल के केवल एक कोने को छुआ है।



हाल ही में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध अभियान  चलाने की बात की, परन्तु इसके लिए वे क्या ठोस कदम उठाना चाहते हैं इसका कोई जिक्र नहीं किया गया। यदि इस समस्या का समाधान करना है तो कड़े कदम उठाने होंगे जिनमें मुख्य निम्नलिखित हैं


(1) सबसे पहले प्रत्येक करदाता को एक लेखा-नम्बर देना होगा और किसी बैंक में अपना खाता खोल उसे इस लेखा-नम्बर को दर्शाना अनिवार्य करना होगा। 



(2) वास्तविक जायदाद के सौदों में बनामी विक्रय को बंद करना होगा और यदि व्यक्ति किसी जायदाद की खरीद को बहुत कम कीमत घोषित कर इसका पंजीकरण कराना चाहता है, तो उसके क्रय का पूर्वाधिकार सरकार को प्राप्त करना चाहिए। इस उपाय से वास्तविक जायदाद के कारण जनित काले धन में कमी लाई जा सकती है।



 (3) उत्पाद के केन्द्रों पर कड़ी निगरानी रखनी होगी ताकि उत्पाद शुल्क में करवंचन को कम किया जा सके। ढीले प्रशासन के कारण बहुत-सा माल बिना रसीद के शुल्क देना नहीं चाहते। प्रशासनिक कमजोरियों का लाभ समाज के सभी वर्ग उठाने लगे हैं। इस प्रवृत्ति को पलटना होगा। 



(4) हमें चुनाव सम्बंधी सुधार करने होंगे और चुनावों में होने वाले व्यय को नियन्त्रित करना होगा। राजनीतिक दलों को कम्पनियों से प्राप्त होने वाले दान पर 1996 में रोक लगा दी गई, परन्तु 



विभिन्न राजनीतिक दल व्यापारियों, उद्योगपतियों, परिवहन चालकों से चुनाव के लिए पैसा लेते हैं और इस निर्भरता की पूर्ति के लिए समृद्ध वर्ग काला धन एकत्र करते हैं और बदले में शासकों से विभिन्न प्रकार की रियायतें और लाभ प्राप्त करते हैं। इसलिये जरूरी है कि काले धन और राजनीतिक सत्ता के बीच कायम हो गए गठबंधन को शीघ्रातिशीघ्र तोड़ा जाए।


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अब काले धन के रूप में समानांतर अर्थव्यवस्था के भयंकर रोग को नियंत्रित करने के लिए राजनीतिक मनोबल कायम करना होगा। इसके लिए देश में पूंजीपति वर्गों और राजनीतिक दलों के बीच कायम हो गए गठबंधन को तोड़ना होगा। 



अतः कुल महत्व का प्रश्न राजनैतिक ढाँचे के स्वरूप, इसका काले धन के प्रति रुख और इसकी काले धन और करवंचकों के साथ मिलीभगत और इनको सहन करने की मात्रा है। जितनी जल्दी राजनीतिक ढांचा इस चुंगल से अपने आपको मुक्त कर लेता है उतना ही देश के लिए बेहतर होगा। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।