दहेज एक सामाजिक अभिशाप निबंध | essay on dowry a curse in hindi

 

 दहेज एक सामाजिक अभिशाप निबंध | essay on dowry a curse in hindi

नमस्कार  दोस्तों आज हम दहेज एक सामाजिक अभिशाप निबंध इस विषय पर निबंध जानेंगे। 

मैं बाजार से धीरे-धीरे घर की ओर जा रहा था। इतने में मराठी चलचित्र के एक विशाल पोस्टर पर दृष्टि पड़ी। उस चलचित्र का नाम पढ़ते ही मैं चौंक गया। मन में विचारों का चक्र तेजी से घूमने लगा। जानते हैं, नाम क्या था? नाम था-'मुलगी झाली हो!' अरे ! कन्या जन्मी है !



आज हमारे देश में आर्थिक विषमता अपनी चरम सीमा पर पहुँची हुई है। एक ओर लक्ष्मीपुत्रों का वर्ग है, तो दूसरी ओर निर्धन एवं साधनहीन विशाल जन-समुदाय। किंतु एक बात में दोनों वर्गों में अद्भुत समानता है। वह है-दहेज ! दहेज का पिशाच यदि गगनचुंबी अट्टालिका में नववधू को विषपान करने के लिए विवश करता है, तो टिन के जर्जर झोंपड़े में भी वह बहू को जल मरने के लिए लाचार कर देता है। 



इसी दहेजरूपी पिशाच के डर से माता-पिता कन्या का जन्म होते ही काँप उठते हैं और सगे-संबंधी निराशा भरे स्वर में कह उठते हैं-'मुलगी झाली हो!'




प्राचीन युग में कन्या का पिता कन्या के विवाह के अवसर पर श्रद्धा से वरपक्ष को वस्त्र, आभूषण आदि देता था। इसे 'स्त्री-धन' कहा जाता था। उस समय समाज में स्त्रियों को पुरुषों के बराबर स्थान प्राप्त था। कालांतर में अनेक कारणों से स्त्री-शिक्षा का ह्रास हो गया।



जो स्त्री पति की अर्धांगिनी मानी जाती थी, वह अब धीरे-धीरे उसके लिए बोझ बनने लगी। कन्या के विवाह के लिए वरपक्ष को मनाने की आवश्यकता पड़ने लगी। कन्या के जीवन निर्वाह का भार उताने के लिए वर को राजी करने के उददेश्य से रखी धन की मात्रा में वृद्धि करनी पड़ी। धीरे धीरे इस प्रथा ने दहेज का रूप धारण कर लिया।




दहेज प्रथा ने बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भयानक रूप धारण कर लिया है। पश्चिमी देशों के अंधानुकरण पर हमारे देश में भी भोगवादी संस्कृति का बेरोकटोक प्रसार हो रहा है। लोगों के मन में रंगीन टेलीविजन, फिज, मोटरकार आदि विलासिता की सामगियों पाने की तीव लालसा जाग उठी है।




इन वस्तुओं को पाने के लिए लोग कन्यापक्षा की विवशता से लाभ उठाना चाहते हैं। उन्हें अपनी आकांक्षा पूरी करने का एक मात्र मार्ग दिखाई देता है कन्यापक्ष की मजबूरी का फायदा उठाकर उससे जबर्दस्ती मनोवांछित वस्तुएँ ऐठना।



विवाह के अवसर पर वरपक्ष की ओर से दहेज के नाम पर ऐसी ऐसी माँगे पेश की जाती हैं कि कन्यापक्ष के रोगटे खड़े हो जाते हैं। कन्यापक्ष के लोग यदि विवश होकर वरपक्ष की माँगे किसी तरह पूरी करते भी है, तो कर्ज के बोझ से दब जाते हैं। 



कभी-कभी दहेज में माँगी गई वस्तुएँ देने के लिए कन्यापक्ष के लोग हामी तो भर लेते हैं, पर उन्हें दे नहीं पाते। यह स्थिति कन्या के लिए घातक सिद्ध होती है।


विवाह के बाद भी वरपक्ष की ओर से दहेज की माँग बनी रहती है। नववधू को अपने मायके से दहेज के रूप में नकद पैसे अथवा चीजें लाने के लिए विवश किया जाता है। यदि उत्पीड़न के बावजूद वह मनोवांछित दहेज लाने में असमर्थ रहती है,।


तो उसे विषपान करने, जल मरने या अन्य किसी प्रकार से आत्महत्या करने के लिए विवश किया जाता है। कभी-कभी तो असहाय नववधुओं को जला दिया जाता है। इस प्रकार दहेज प्रथा ने आज सामाजिक अभिशाप का भयावह रूप धारण कर लिया है।


पहले लोगों की कल्पना थी कि स्त्री शिक्षा का प्रसार होने पर दहेज-प्रथा धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी। अब स्त्री शिक्षा का पर्याप्त प्रसार हो गया है। परंतु दहेज की विभीषिका और अधिक बढ़ी है। शिक्षित समाज में तो उसने अत्यंत भयानक रूप धारण कर लिया है।


सरकार ने दहेज विरोधी कानून बनाए हैं। इस प्रथा के निर्मूलन के लिए स्त्रियों के अनेक संगठन भी प्रयत्नशील हैं। कई समाजसेवी संस्थाएँ भी इस दिशा में कार्यरत हैं। किंत दहेज-प्रथा रूपी पिशाचिनी समग्र भारतीय समाज को बुरी तरह जकड़े हुए है। इस निर्मम प्रथा को जड़ से मिटाने के लिए युवा पीढ़ी को जागरूक बनाना जरूरी है।



वह दिन जाने कब आएगा? अब तो यही लगने लगा है कि जब तक राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, दयानंद सरस्वती, जोतिबा फुले या महात्मा गांधी जैसी कोई महान विभूति फिर से जन्म लेकर सारे समाज की विचारधारा में परिवर्तन नहीं लाती, तब तक दहेज के सामाजिक अभिशाप से मुक्ति पाना असंभव है। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।