पंचायती राज पर निबंध | Essay on Panchayati Raj In hindi

 

 पंचायती राज पर निबंध | Essay on Panchayati Raj In hindi


निबंध 1

नमस्कार  दोस्तों आज हम  पंचायती राज पर निबंध इस विषय पर निबंध जानेंगे। इस लेख मे कुल 3 निबंध दिये गये हे जिन्‍हे आप एक -एक करके पढ सकते हे । भारत एक कृषिप्रधान देश हैं। इस देश की सत्तर प्रतिशत से अधिक जनता गाँवों में रहती है। देश के सर्वांगीण विकास के लिए गाँवों का विकास होना बहुत जरूरी है । हमारे देश में लोकतंत्रात्मक शासन-व्यवस्था है। भारत संसार का सबसे बड़ा लोकतंत्रात्मक देश है।



किंतु आजादी के बाद पचास साल से अधिक समय बीत जाने के बाद भी लोकतंत्र के लाभ देश के ग्रामीण क्षेत्रों के निवासियों को अपेक्षित मात्रा में नहीं मिल सके हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में लोकतंत्र की सफलता से ही देश में लोकतंत्र की जड़ें मजबूत होंगी। इसी धारणा से भारत के संविधान में ग्रामीण क्षेत्रों को स्थानीय स्वायत्तता प्रदान करने का प्रावधान किया गया है।




पंचायतीराज का तात्पर्य है कि ग्रामीण क्षेत्रों में सत्ता और शक्ति जनता के हाथों में हो। प्राचीन काल में भी इस देश में पंचायत-प्रथा थी। बाद में ब्रिटिश शासन ने भारत के गाँवों की आत्मनिर्भरता नष्ट करने के उद्देश्य से पंचायतों को धीरे-धीरे निर्जीव बना दिया। 



हमारे देश के महान नेताओं ने पंचायतों का महत्त्व अच्छी तरह से समझ लिया था। इसलिए स्वाधीन भारत के संविधान में पंचायतीराज की रूपरेखा प्रस्तुत की गई।



हमारा देश अत्यंत विशाल है। जनसंख्या की दृष्टि से विश्व के देशों में इसका दूसरा स्थान है। २००१ की जनगणना के अनुसार इस देश की जनसंख्या १ अरब २ करोड ७० लाख हो गई है। यह विशाल जनसंख्या तीव्र गति से बढ़ती जा रही है। जनसंख्यावृद्धि के कारण लोगों के आपसी झगड़े भी बढ़ते जा रहे हैं। 




वर्तमान न्याय- व्यवस्था इन झगड़ों का संतोषजनक और शीघ्र निपटारा करने में असमर्थ सिद्ध हुई है। न्यायालयों में हजारों की संख्या में मामले वर्षों से विचाराधीन हैं। फिर, न्यायालय से न्याय प्राप्त करने की व्यवस्था बहुत खर्चीली भी है। ऐसी स्थिति में ग्राम पंचायतें ही ग्रामीण क्षेत्रों की जनता को शीघ्र और कम खर्च में संतोषजनक न्याय दे सकती हैं।



ग्राम पंचायतों के माध्यम से ग्रामीण जनता में सहकार की भावना का विकास हो सकता है। उन्हें अपने क्षेत्र की समस्याओं पर मिलजुलकर विचार करने के अवसर प्राप्त हो सकते हैं। पंचायतों के चुनावों में उन्हें जनतंत्र का क्रियात्मक रूप देखने का मौका मिलता है।



अपने क्षेत्र की समस्याओं को स्वयं सुलझाने का प्रयास करने से उनमें स्वावलंबन की भावना विकसित होती है। इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ता है और उनकी नैतिकता में भी वृद्धि होती है।


हमारे देश की खेती योग्य भूमि छोटे-छोटे टुकड़ों में बँटी हुई है। इन छोटे-छोटे टुकड़ों पर खेती करना आर्थिक दृष्टि से लाभकर नहीं होता। यदि छोटे किसान अपने-अपने खेतों को मिलाकर सहकारी खेती करना शुरू कर दें, तो उन्हें अधिक आमदनी हो सकती है।



किंतु कानूनी अड़चनों से तथा एक-दूसरे के प्रति सशंकित रहने के कारण वे सहकारी खेती करने से हिचकते हैं। पंचायतें इस कार्य को भली-भाँति करा सकती हैं। 



हमारे देश में ऐसे सामाजिक रीति-रिवाज प्रचलित हैं, जो अत्यंत हानिकारक हैं-जैसे जन्म, मरण या विवाह के अवसर पर किया जानेवाला धन का अपव्यय। पंचायतों के माध्यम से धन के इस अपव्यय को रोका जा सकता है। पंचायतें प्रौढशिक्षा का कार्यक्रम भी चला सकती हैं।




भारत में पंचायतें स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में पर्याप्त योगदान कर सकती हैं और स्त्रियों को उनके न्यायोचित अधिकार दिलाने में सहायक हो सकती हैं। पंचायतीराज से देश के ग्रामीण क्षेत्रों का आर्थिक एवं सामाजिक विकास हो, तभी पंचायती राज का उद्देश्य सिद्ध होगा। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।

निबंध 2
भारत एक कृषिप्रधान देश हैं। इस देश की सत्तर प्रतिशत से अधिक जनता गाँवों में रहती है। देश के सर्वांगीण विकास के लिए गाँवों का विकास होना बहुत जरूरी है । हमारे देश में लोकतंत्रात्मक शासन-व्यवस्था है। भारत संसार का सबसे बड़ा लोकतंत्रात्मक देश है।





किंतु आजादी के बाद पचास साल से अधिक समय बीत जाने के बाद भी लोकतंत्र के लाभ देश के ग्रामीण क्षेत्रों के निवासियों को अपेक्षित मात्रा में नहीं मिल सके हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में लोकतंत्र की सफलता से ही देश में लोकतंत्र की जड़ें मजबूत होंगी। इसी धारणा से भारत के संविधान में ग्रामीण क्षेत्रों को स्थानीय स्वायत्तता प्रदान करने का प्रावधान किया गया है।




पंचायतीराज का तात्पर्य है कि ग्रामीण क्षेत्रों में सत्ता और शक्ति जनता के हाथों में हो। प्राचीन काल में भी इस देश में पंचायत-प्रथा थी। बाद में ब्रिटिश शासन ने भारत के गाँवों की आत्मनिर्भरता नष्ट करने के उद्देश्य से पंचायतों को धीरे-धीरे निर्जीव बना दिया। 




हमारे देश के महान नेताओं ने पंचायतों का महत्त्व अच्छी तरह से समझ लिया था। इसलिए स्वाधीन भारत के संविधान में पंचायतीराज की रूपरेखा प्रस्तुत की गई।




हमारा देश अत्यंत विशाल है। जनसंख्या की दृष्टि से विश्व के देशों में इसका दूसरा स्थान है। २००१ की जनगणना के अनुसार इस देश की जनसंख्या १ अरब २ करोड ७० लाख हो गई है। यह विशाल जनसंख्या तीव्र गति से बढ़ती जा रही है। जनसंख्यावृद्धि के कारण लोगों के आपसी झगड़े भी बढ़ते जा रहे हैं। 





वर्तमान न्याय- व्यवस्था इन झगड़ों का संतोषजनक और शीघ्र निपटारा करने में असमर्थ सिद्ध हुई है। न्यायालयों में हजारों की संख्या में मामले वर्षों से विचाराधीन हैं। फिर, न्यायालय से न्याय प्राप्त करने की व्यवस्था बहुत खर्चीली भी है। ऐसी स्थिति में ग्राम पंचायतें ही ग्रामीण क्षेत्रों की जनता को शीघ्र और कम खर्च में संतोषजनक न्याय दे सकती हैं।




ग्राम पंचायतों के माध्यम से ग्रामीण जनता में सहकार की भावना का विकास हो सकता है। उन्हें अपने क्षेत्र की समस्याओं पर मिलजुलकर विचार करने के अवसर प्राप्त हो सकते हैं। पंचायतों के चुनावों में उन्हें जनतंत्र का क्रियात्मक रूप देखने का मौका मिलता है।




अपने क्षेत्र की समस्याओं को स्वयं सुलझाने का प्रयास करने से उनमें स्वावलंबन की भावना विकसित होती है। इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ता है और उनकी नैतिकता में भी वृद्धि होती है।



हमारे देश की खेती योग्य भूमि छोटे-छोटे टुकड़ों में बँटी हुई है। इन छोटे-छोटे टुकड़ों पर खेती करना आर्थिक दृष्टि से लाभकर नहीं होता। यदि छोटे किसान अपने-अपने खेतों को मिलाकर सहकारी खेती करना शुरू कर दें, तो उन्हें अधिक आमदनी हो सकती है।




किंतु कानूनी अड़चनों से तथा एक-दूसरे के प्रति सशंकित रहने के कारण वे सहकारी खेती करने से हिचकते हैं। पंचायतें इस कार्य को भली-भाँति करा सकती हैं। 




हमारे देश में ऐसे सामाजिक रीति-रिवाज प्रचलित हैं, जो अत्यंत हानिकारक हैं-जैसे जन्म, मरण या विवाह के अवसर पर किया जानेवाला धन का अपव्यय। पंचायतों के माध्यम से धन के इस अपव्यय को रोका जा सकता है। पंचायतें प्रौढशिक्षा का कार्यक्रम भी चला सकती हैं।





भारत में पंचायतें स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में पर्याप्त योगदान कर सकती हैं और स्त्रियों को उनके न्यायोचित अधिकार दिलाने में सहायक हो सकती हैं। पंचायतीराज से देश के ग्रामीण क्षेत्रों का आर्थिक एवं सामाजिक विकास हो, तभी पंचायती राज का उद्देश्य सिद्ध होगा। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।

निबंध 3

भारत गावों और ग्रामीणों का देश है। गांवों के विकास के लिए सत्ता का विकेन्द्रीकरण आवश्यक है। इसका तात्पर्य है विकासकार्यों और प्रशासन में ग्रामीणों को सीधी और गहरी भागीदारी। यह तभी संभव है जब देश में पंचायत राज और ग्राम पंचायतें हों।


पंचायत राज और ग्राम पंचायतों की परंपरा बहुत प्राचीन है। पंचों को यहां परमेश्वर की तरह माना जाता रहा है क्योंकि उनका न्याय सदा पक्षपात रहित होता है। वे दूध-का-दूध व पानी-का-पानी करने में विश्वास रखते थे। आपस के सभी विवाद और समस्याएं गांव के पंच बड़ी कुशलता और सूझ-बूझ से करते थे। उनके न्याय पर कभी किसी को अविश्वास नहीं होता था। इसलिए 'पंचों की राय सिरमाथे' की कहावत प्रसिद्ध हुई। 


पंचायतें सबसे प्राथमिक स्तर पर प्रजातंत्र की मजबूत नींव रही हैं। ये लोकतंत्र की पक्की आधार शिलाएं रही हैं। इन्होंने देश के सांस्कृतिक, राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक विकास में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।



15 अगस्त 1947 भारत स्वतंत्र हुआ और इसके साथ ही पंचायतों की पुनरुद्धार की प्रक्रिया का प्रारंभ। इसके साथ ही पंचवर्षीय योजनायों का प्रारंभ हुआ और ग्रासमितियों तथा पंचायतों की स्थापना का दौर भी। अतः राज्यों और प्रदेशों ने ग्राम पंचायतों की स्थापना के लिए आवश्यक और विशेष कदम उठाये, नियम-उपनियम बनाये।


परिणामत: 1956 के आते-आते इनकी संख्या एक लाख पार कर गई। परन्तु इनके अधिकार सीमितथे। इनके पास आर्थिक साधन नहीं थे। वे अपने ढंग से स्वतंत्ररूप से खर्च नहीं कर सकती थीं। और इसीलिए उनके कार्य और गतिविधियां संतोषजनक नहीं थे। वे वांछित परिणाम देने में पूरी तरह असफल रहीं। अत: इनके अधिकार क्षेत्र और कार्यप्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता महसूस की गई।


भारतीय संविधान में 15 मई, 1989 को 64वां संशोधन कर पंचायत-व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त और अधिक प्रभावी बनाया गया। उन्हें अधिक और वास्तविक आर्थिक व प्रशासनिक अधिकार दिये गये जिससे कि ये ग्रामीण स्तर पर स्वराज और स्वशासन की सच्ची संस्थायें बन सकें। इसके अंतर्गत यह भी व्यवस्था की गई की हर पांच वर्ष बाद पंचायतों के चुनाव बराबर होते रहें। 


अब प्रत्येक राज्य में पंचायत राज व्यवस्था है। ये गांवों के विकास, उत्थान और देखरेख के लिए पूरी तरह तैयार और जिम्मेदार हैं। पंचायत एक सरपंच या प्रमुख सरपंच की देखरेख में काम करती है। पंचायत न्याय करती है, विवादों का निपटारा करती है, अपराधियों को सजा देती है और ग्रामीणों के स्वास्थ्य, शिक्षा और कल्याण सुनिश्चित करती है। कुओं, पूजाघरों, तालाबों, सिंचाई के साधनों, विश्रामगृहों, स्कूलों आदि की व्यवस्था तथा उनकी देखभाल भी पंचायत के अधिकार क्षेत्र में आती है।


पंचायत राज में त्रिस्तरीय प्रशासनिक व्यवस्था है। पहले ग्राम स्तर पर, दूसरे ब्लॉक स्तर और तीसरे जिला स्तर पर। पहले स्तर पर ग्रामपंचायतें हैं, दूसरे पर पंचायत समितियां और तीसरे पर जिला परिषदें। इनकी कार्यावधि 3-5 वर्ष की होती है। ये संस्थाएं अपने-अपने क्षेत्र के ग्रामीण-उद्योगों, कृषि-विकास, मातृ एवं शिशु कल्याण, स्वास्थ्य आवश्यकताओं, प्राथमिक शिक्षा, चारागाह, सड़कें, कुंए, सफाई, आदि के लिए उत्तरदायी होती हैं। इन सब कार्यों के लिए इन्हें कई वित्तीय और प्रशासनिक अधिकार प्राप्त हैं जो इन्हें स्वावलम्बी बनाते हैं।


भारत में इस समय लगभग एक लाख से अधिक ग्राम पंचायतें, 5,500 पंचायत समीतियां और 371 जिला परिषदें हैं। गरीबी उन्मूलन, ग्रामीण विकास, जवाहर रोजगार योजना आदि कार्यक्रमों में ये संस्थाएं सक्रिय भाग ले रही हैं। 1992 के 73वें संविधान संशोधन से इन प्रजातंत्रिय संस्थाओं को और शक्ति व अधिकार मिले हैं। इनके माध्यम से गरीब ग्रामीणों में एक नई जागृति आ रही है और वे अपने अधिकारों और सुविधाओं के प्रति अधिक सजग और सचेत होते जा रहे हैं। 


अनुसूचित जाति व जनजाति व पिछड़े वर्ग के लोग अब आगे आ रहे हैं । पंचायत संस्थाओं के माध्यम से अगड़ों और पिछडों के बीच एक सार्थक संवाद की भी शुरुआत हुई है जो बड़ी लाभकारी है। महिलाओं और आर्थिक दृष्टि से बहुत कमजोर वर्गों के लोगों के लिए भी पचांयत व्यवस्था एक वरदान सिद्ध हो रही है। गरीब, महिलाएं और पिछड़े वर्ग के लोग पंचायत चुनावों में भाग लेकर बड़ी सफलता प्राप्त कर रहे हैं। 


काफी संख्या में महिलाएं सरपंच, समीति-प्रधान आदि चुनी जा रही हैं। अपनी लगन, ईमानदारी, परिश्रम और सही सोच के कारण वे बहुत सफल भी हो रही हैं। परन्तु अभी भी प्रजातांत्रिक संस्थाओं के विकास, शक्ति और स्मृद्धि के लिए बहुत कुछ किया जाना शेष है। पंचायतों को अभी अधिक निष्पक्ष, विश्वसनीय, उत्तरदायी, कुशल और समर्थ बनना है इनमें अनुसूचित जाति, जनजाति, महिलाओं, छोटे किसानों, खेतीहर मजदूरों आदि की भागीदारी और अधिक सुनिश्चित होनी चाहिये। 


पंचायतों को और ज्यादा वित्तीय सहायता, अधिकार व प्रशासनिक स्वतंत्रता मिलनी चाहिये। पंचों और सरपंचों की शिक्षा व प्रशिक्षण पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। राज्य और केन्द्र सरकारों को इन संस्थाओं के और अधिक विकास, संवर्धन और सफलता के लिए शीघ्र प्रभावी कदम उठाने चाहिये। पंचायतों में अनुसूचित जनजाति व महिलाओं, के लिए सुरक्षित स्थानों का होना इस ओर एक अच्छा प्रयास है। 


भारत की 80 प्रतिशत जनसंख्या गांवों में रहती है। अतः इन संस्थाओं का दायित्व बहुत बढ़ जाता है। भारत के सच्चे विकास और समृद्धि बहुत कुछ पंचायती संस्थाओं की सफलता व कार्यकुशलता पर ही निर्भर करती है। पंचायतें ही स्थानीय समस्याओं के समाधान और समुचित विकास को सुनिश्चित कर सकती हैं, और कोई दूसरा विकल्प नहीं है।दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।