नर हो न निराश करो मन को निबंध | nar ho na nirash karo man ko par nibandh

 

 नर हो न निराश करो मन को निबंध | nar ho na nirash karo man ko par nibandh

नमस्कार  दोस्तों आज हम नर हो न निराश करो मन को निबंध इस विषय पर निबंध जानेंगे। उपर्युक्त शीर्षक का अर्थ है कि व्यक्ति को अपने किसी उद्देश्य की पूर्ति में असफल हो जाने पर निराश नहीं होना चाहिए, बल्कि सफलता प्राप्त करने के लिए उसे अपने प्रयत्न जारी रखने चाहिए। पुरुषार्थी व्यक्ति अपने प्रयत्न पर भरोसा रखते हैं। वे अपने मार्ग में आनेवाली विघ्न-बाधाओं से नहीं घबराते। 



कठिन से कठिन कार्य भी उन्हें असंभव नहीं लगता। वे विघ्न-बाधाओं से जूझते रहते हैं और अंत में उन्हें पददलित कर अपना लक्ष्य प्राप्त कर ही लेते हैं।



'नर' या मानव विधाता की सर्वश्रेष्ठ कृति है। प्रकृति ने उसे बुद्धिमान बनाया है। उसे कल्पनाशीलता का वरदान दिया है। वह स्वभाव से ही महत्त्वाकांक्षी होता है और परिस्थितियों के अनुसार उचित कदम उठा सकता है। सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी होने के नाते छोटी-मोटी बाधाओं से हताश न होकर उसे साहसी तथा निर्भय होना चाहिए। उसे अपने मार्ग में आनेवाली बाधाओं का सोच-समझकर निर्भयतापूर्वक मुकाबला करना चाहिए।




मानवजीवन सुख-दुख तथा आशा-निराशा के ताने-बाने से बुना हुआ एक सुंदर पट है। मनुष्य के जीवन में कभी उत्थान का अवसर आता है, तो कभी पतन का। जो सच्चे अर्थों में पुरुषार्थी होते हैं, वे असफलताओं से कभी निराश नहीं होते, वरन दूने उत्साह से अपना लक्ष्य प्राप्त करने के प्रयत्न में लग जाते हैं।




शिवाजी का जन्म एक सामान्य जागीरदार के घर हुआ था। अपनी बाल्यावस्था में उन्होंने बीजापुर और अहमदनगर के सुलतानों द्वारा निरीह प्रजा पर किए जानेवाले अत्याचार देखे थे। इससे उनका मन अशांत हो उठा और उन्होंने निरीह जनता के कल्याण के लिए 'हिंदवी स्वराज्य' की स्थापना करने का निश्चय किया।



अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उन्हें अनेक विघ्न-बाधाओं का सामना करना पड़ा। कई बार उन्हें असफलताएँ हाथ लगीं। किंतु वे निराश नहीं हुए, बल्कि दूने उत्साह से लगातार प्रयत्न करते रहे। अंत में उन्होंने 'हिंदवी स्वराज्य' की स्थापना करके ही दम लिया।


यदि वे निराश होकर हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाते, तो 'हिंदवी स्वराज्य' की स्थापना का उनका स्वप्न, स्वप्न ही रह जाता। इसी प्रकार महात्मा गांधी ने देखा कि भारतीय जनता गुलामी की जंजीरों में जकड़ी हुई है और भारतीय समाज अनेक प्रकार की बुराइयों से ग्रसित है।



 विदेशी सत्ता देश का मनमाना शोषण कर रही है। यह देखकर उन्होंने गुलामी की बेड़ियाँ तोड़ फेंकने के लिए भारतीय जनता का आह्वान किया। उन्होंने जनता को अहिंसा तथा सत्याग्रह के शस्त्र दिए और आजादी की लड़ाई की बागडोर सँभाली। 


अपना लक्ष्य प्राप्त करने में उन्हें अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ा तथा अनेक कष्ट सहन करने पड़े, किंतु उन्होंने अपना संघर्ष जारी रखा। अंत में उनके नेतृत्व में भारतीय जनता की विजय हुई और भारत को आजादी मिली। यदि वे निराश होकर बैठ जाते, तो भारतवासी आज तक दासता की बेड़ियों में जकड़े ही रहते।



आज का युग विज्ञान के उत्कर्ष का युग है। रोज नए-नए अविष्कार हो रहे हैं। अनेक संक्रामक रोगों तथा महामारियों पर काबू पा लिया गया है। मानसिक रोगियों की भी सफलतापूर्वक चिकित्सा की जाने लगी है। रेलगाड़ियों, जलयानों तथा वायुयानों ने संसार के देशों को एक-दूसरे के समीप ला दिया है।




संगणक की मदद से जटिल से जटिल समस्याएँ भी पलक झपकते ही हल की जाने लगी हैं। इंटरनेट द्वारा हम अपनी समस्या विश्व के किसी भी कोने में मौजूद विशेषज्ञों के पास भेजकर उचित समाधान प्राप्त कर सकते हैं। फिर, निराश होने का प्रश्न ही कहाँ उठता है?



हमें चाहिए कि आधुनिक वैज्ञानिक अविष्कारों की मदद लेकर, विघ्न-बाधाओं का सामना करते हुए हम अपने कर्तव्य-पथ पर आगे बढ़ते जाएँ। जब कभी मन में निराशा उत्पन्न हो, तो अपने-आप को चेतावनी देते हुए गुनगुनाएँ-'नर हो, न निराश करो मन को...' दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।