pustak ki atmakatha


तुमने पुस्तकों में अनेक महापुरुषों की आत्मकथाएँ पढ़ी होंगी। लेकिन कभी यह नहीं सोचा होगा कि पुस्तक की भी आत्मकथा होती है। मैं बहुत पुरानी पुस्तक हूँ। मैंने अपने लंबे जीवन में सुख और दुख दोनों भोगे हैं। लो, आज मैं तुम्हें अपनी आत्मकथा सुनाती हूँ।

पहले मैं तुम्हें अपने जन्म के बारे में बताती हूँ। बहुत समय पहले इस शहर की एक सँकरी गली में एक पुराना मकान था। इसके एक कमरे में एक लेखक महोदय रहते थे। उन्होंने जीवन में बहुत ठोकरें खाई थीं। उन्हीं ठोकरों से सबक लेकर उन्होंने मेरी रचना की थी। तब मैं हाथ से लिखी हुई पांडुलिपि के रूप में थी। फिर लेखक महोदय मुझे एक प्रकाशक के पास ले गए। प्रकाशक को मैं बहुत पसंद आ गई। उसने एक छापाखाने में मुझे छपवाया। एक चित्रकार से उसने मेरा सुंदर मुखपृष्ठ बनवाया।

pustak-ki-atmakatha
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 मेरे अंदर जो चित्र बने हैं, वे भी उसी चित्रकार के बनाए हुए हैं। फिर एक जिल्दसाज ने मेरी बढ़िया जिल्दसाजी की। अब मैं बहुत आकर्षक बन गई थी। मेरा रूप देखकर लेखक महोदय बहुत खुश हुए। उन्हें प्रकाशक की ओर से अच्छी खासी रकम मिली। मैं किताबों की एक दुकान में बेचने के लिए सजा दी गई। एक दिन दुकान में एक बुजुर्ग सज्जन आए। उन्होंने मुझे खरीद लिया। वे मुझे एक बड़े और शानदार कमरे में ले आए। वहाँ अलमारियों में मेरे जैसी अनेक पुस्तकें भरी हुई थीं। मुझ पर प्लास्टिक का चढ़ौना चढ़ाया गया। इस पर एक नंबर चिपका दिया गया। फिर मेरा नाम एक बड़े रजिस्टर में दर्ज किया गया। उसके बाद मुझे भी अन्य पुस्तकों के साथ अलमारी में रख दिया गया।

वास्तव में यह बड़ा कमरा एक पुस्तकालय था। पुस्तकालय में रोज़ अनेक पाठक पुस्तकें पढ़ने आते थे। मैं पाठकों को बहुत पसंद आई। वे बार-बार मुझे पढ़ते थे। कुछ तो मेरे पन्नों पर अपनी टिप्पणियाँ भी लिख डालते थे। इससे मेरा रूप जरूर कुछ बिगड़ता, पर मेरा सम्मान भी बढ़ता था। मैं अपना बखान नहीं करती, पर मैंने कई पाठकों को गलत रास्तों पर जाने से बचाया है।

 मैंने कई लोगों को निराशा के अंधकार से बाहर निकाला है। पाठकों का प्यार पाते-पाते वर्षों गुजर चुके हैं। अब तो मैं काफी पुरानी हो गई हूँ। इसलिए मेरी और नई प्रतियाँ पुस्तकालय में मँगा ली गई हैं। इससे मुझे बहुत खुशी हुई है। पर सुनती हूँ नई प्रतियाँ आ जाने पर मुझे हटा दिया जाएगा। यह सुनकर मेरा दिल काँप उठता है। हे भगवान, यहाँ से हटा दिए जाने पर मेरा क्या हाल होगा?
 

pustak ki atmakatha

 

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तुमने पुस्तकों में अनेक महापुरुषों की आत्मकथाएँ पढ़ी होंगी। लेकिन कभी यह नहीं सोचा होगा कि पुस्तक की भी आत्मकथा होती है। मैं बहुत पुरानी पुस्तक हूँ। मैंने अपने लंबे जीवन में सुख और दुख दोनों भोगे हैं। लो, आज मैं तुम्हें अपनी आत्मकथा सुनाती हूँ।

पहले मैं तुम्हें अपने जन्म के बारे में बताती हूँ। बहुत समय पहले इस शहर की एक सँकरी गली में एक पुराना मकान था। इसके एक कमरे में एक लेखक महोदय रहते थे। उन्होंने जीवन में बहुत ठोकरें खाई थीं। उन्हीं ठोकरों से सबक लेकर उन्होंने मेरी रचना की थी। तब मैं हाथ से लिखी हुई पांडुलिपि के रूप में थी। फिर लेखक महोदय मुझे एक प्रकाशक के पास ले गए। प्रकाशक को मैं बहुत पसंद आ गई। उसने एक छापाखाने में मुझे छपवाया। एक चित्रकार से उसने मेरा सुंदर मुखपृष्ठ बनवाया।

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 मेरे अंदर जो चित्र बने हैं, वे भी उसी चित्रकार के बनाए हुए हैं। फिर एक जिल्दसाज ने मेरी बढ़िया जिल्दसाजी की। अब मैं बहुत आकर्षक बन गई थी। मेरा रूप देखकर लेखक महोदय बहुत खुश हुए। उन्हें प्रकाशक की ओर से अच्छी खासी रकम मिली। मैं किताबों की एक दुकान में बेचने के लिए सजा दी गई। एक दिन दुकान में एक बुजुर्ग सज्जन आए। उन्होंने मुझे खरीद लिया। वे मुझे एक बड़े और शानदार कमरे में ले आए। वहाँ अलमारियों में मेरे जैसी अनेक पुस्तकें भरी हुई थीं। मुझ पर प्लास्टिक का चढ़ौना चढ़ाया गया। इस पर एक नंबर चिपका दिया गया। फिर मेरा नाम एक बड़े रजिस्टर में दर्ज किया गया। उसके बाद मुझे भी अन्य पुस्तकों के साथ अलमारी में रख दिया गया।

वास्तव में यह बड़ा कमरा एक पुस्तकालय था। पुस्तकालय में रोज़ अनेक पाठक पुस्तकें पढ़ने आते थे। मैं पाठकों को बहुत पसंद आई। वे बार-बार मुझे पढ़ते थे। कुछ तो मेरे पन्नों पर अपनी टिप्पणियाँ भी लिख डालते थे। इससे मेरा रूप जरूर कुछ बिगड़ता, पर मेरा सम्मान भी बढ़ता था। मैं अपना बखान नहीं करती, पर मैंने कई पाठकों को गलत रास्तों पर जाने से बचाया है।

 मैंने कई लोगों को निराशा के अंधकार से बाहर निकाला है। पाठकों का प्यार पाते-पाते वर्षों गुजर चुके हैं। अब तो मैं काफी पुरानी हो गई हूँ। इसलिए मेरी और नई प्रतियाँ पुस्तकालय में मँगा ली गई हैं। इससे मुझे बहुत खुशी हुई है। पर सुनती हूँ नई प्रतियाँ आ जाने पर मुझे हटा दिया जाएगा। यह सुनकर मेरा दिल काँप उठता है। हे भगवान, यहाँ से हटा दिए जाने पर मेरा क्या हाल होगा?