जातिवाद पर निबंध | essay on racism in hindi

 

 जातिवाद पर निबंध | essay on racism in hindi


नमस्कार  दोस्तों आज हम जातिवाद इस विषय पर निबंध जानेंगे। भारत में जातिवाद राष्ट्रीय एकीकरण के लिए हानिकारक है। जातिवाद भारत के लिए क्षेत्रीय दबावों से कहीं अधिक हानिकारक सिद्ध हो सकता है।” वर्तमान काल में जाति व्यक्तियों को एकता के सूत्र में बाँधने में बाधक सिद्ध हुई है; किन्तु रजनी कोठारी जैसे विद्वानों का मानना है कि परम्परावादी जातीय व्यवस्था के आधुनिकीकरण के कारण भारत के लिये जातिवाद अभिशाप के बजाय वरदान साबित हुआ है।


भारत में जातिवादी व्यवस्था का चलन आर्यों के आगमन के बाद से शुरू हुआ। आर्यों के आगमन के साथ ही भारत में दो वर्ग थे आर्य तथा अनार्य । आर्यों तथा अनार्यों का युद्ध समय-समय पर होता रहा। 


परिस्थितिवश देवपूजा करने, युद्ध करने तथा कृषि कार्य करने के लिये तीन वर्ग क्रमशः पुरोहित वर्ग, योद्धा वर्ग तथा विश् वर्ग बनाए गए। इसके पीछे मुख्य कारण योद्धा वर्ग जो रक्षक वर्ग था जो अन्य कार्यों से मुक्त कर रक्षा कार्य में ही लगाए रखना था। 


यही तीनों वर्ग बाद में ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य कहलाए। जब आर्यों ने अनार्यों को युद्ध में पराजित कर बंदी बनाना शुरू कर दिया तो दस्यु वर्ग का उदय हुआ। ये बंदी (दस्यु वर्ग) आर्यों के तीनों वर्गों के परिचालक के रूप में स्थापित हुए। इन्हें बाद में शूद्र कहा गया। 



ऋग्वेद के दसवें मण्डल का 10वाँ सूक्त पुरुष सूक्त है। इस सूक्त में एक विराट पुरुष की कल्पना की गयी है। इस पुरुष के मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, जांघ से वैश्य तथा पैर से शूद्रों की उत्पत्ति बतायी गयी है। निश्चय ही रचनाकार ने समाज की विराट पुरुष के रूप में की गयी कल्पना में सभी वर्गों के महत्व को दर्शाने की चेष्टा की है।


समाज के सुचारू संचालन के लिये ब्राह्मण और शूद्र दोनों ही अपरिहार्य हैं। समाज की संरचना में दोनों ही वर्गों का समान महत्व है। रचनाकार ने पुरुष सूक्त के प्रथम मंत्र में ही इसे इस प्रकार से स्पष्ट किया है-सहत्र शीर्षा पुरुषः सहस्त्राक्षः सहस्त्रपात्। स भूमि विश्वता वृत्वाऽत्यतिष्ठछंशागुलम्।


जाति शब्द की व्युत्पत्ति 'जन' धातु से है जिसका अर्थ जन्म होता है अतः जाति की धारणा जन्म के आधार पर उद्भूत होकर अनेक तत्वों द्वारा विकसित हुई है।


इनमें पुरोहित वर्ग की अर्हता, वंश-शुद्धता की भावना, वंशानुगत उद्योग-धंधों का ग्रहण, अनुलोम-प्रतिलोम विवाह, वर्ण संकरता, जाति विशेष में प्रचलित विशेष रीति-रिवाजों के अनुगमन का आग्रह तथा उनकी रक्षा का प्रयत्न, रीति-रिवाजों से भ्रष्ट हुए लोगों का जाति बहिष्कार, बहिष्कृतों द्वारा अलग जाति का निर्माण, 


विशिष्ट जातियों का प्रवास तथा प्रादेशिकता के आधार पर नामकरण, काल विशेष की राजनीतिक परिस्थितियाँ, राष्ट्रीय भावना, विशिष्ट सम्प्रदायों एवं पंथ अनुयायियों द्वारा अलग जाति का निर्माण, राजाओं द्वारा पुरस्कार स्वरूप दी गयी उपाधियों का वंशजों द्वारा नाम के साथ उपयोग।वर्ष बीतते गए। 


जाति से उपजाति और उपजाति से पुनः उपजाति का निर्माण होता गया। अधिकार का संघर्ष अनवरत् चलता रहा। निचली जाति के लोगों ने परिस्थिति के अनुसार अवसर का लाभ उठाने की चेष्टा की। कुछ सफल रहे, कुछ दबा दिये गये। जो जातियाँ अधिकार के संघर्ष में पीछे रह गयीं वे फिर आगे न आ सकीं। उन पर भीषण अत्याचार हुए। 



उच्च जाति के लोगों ने उन्हें दासत्व के लिये विवश किया। इनकी मुक्ति एवं इनके उत्थान के लिए समय-समय पर समाज सुधारक की भूमिका में कुछ लोग आगे भी आए। दादू रविदास, नामदेव, कबीर सूरदास जैसे समाज उद्धारकों ने इस दिशा में प्रयास किया। बाद में चैतन्य महाप्रभु, गुरु नानक, सूरदास, तुलसीदास ने भी इनके प्रति समाज के विचारों को बदलने का प्रयास किया।


भारत की प्राचीन जाति व्यवस्था के स्वरूप में अंग्रेजों के आगमन के बाद कुछ परिवर्तन होने लगा।अंग्रेजों ने यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि व्यक्ति की सामाजिक स्थिति का निर्धारण उसके जन्म के बजाय व्यक्तिगत क्षमता निष्पादन और उपलब्धि के द्वारा होगा। 


गाँधीजी आरक्षण को समाज को दो टुकड़ों में बांटने वाला मानकर अस्वीकार कर रहे थे तो डॉ० अम्बेडकर दलितों के उत्थान के लिये इसे अति आवश्यक मान रहे थे। गांधीजी सम्भवतः आज के उस भारत को देख रहे थे जिसके नेतागण आरक्षण को वोट बैंक बनाकर सत्ता सुख से चिपके हए हैं, किन्तु अम्बेडकर के पास दलितों के उत्थान के लिये इस व्यवस्था के अतिरिक्त कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था।


गांधी या अम्बेडकर किसी ने भी जातिवादी आधार पर टिकी आज की राजनीतिक व्यवस्था के इतने वीभत्स रूप की कल्पना नहीं की थी। समाज के दो टुकड़ों में बंटने की आशंका गांधी जी को तो थी, किन्तु इसी का लाभ प्राप्त करते हुए लोग सत्ता तक पहुंचेंगे यह उन्होंने भी नहीं सोचा था। 


आज भारतीय राजनीतिक संस्थाओं में भेदभाव इस तरह घुल-मिल गए हैं कि यह संस्थाएँ सुचारू रूप से कार्य करने में असमर्थ रही हैं। जातिवाद का प्रभाव राजनीतिक दलों निर्वाचनों और राजनीतिक लाभों के वितरण में परिलक्षित होता है। सभी राजनीतिक दलों में जातीय आधार पर अनेक गुट पाए जाते हैं, जिनमें प्रतिस्पर्धा की भावना विद्यमान है।


जाति प्रथा ने भारत के संसदीय लोकतन्त्र को ही नहीं समाज के रूप को भी विकृत किया है। भारतीय समाज को इसने अनेक जातियों, उपजातियों में विभक्त कर राष्ट्रीय एकता को नुकसान पहुँचाया है। आज हर जाति का दृष्टिकोण संकीर्ण हो गया है। 


जति प्रेम की भावना ने दूसरी जातियों के प्रति घृणा, द्वेष, ईर्ष्या एवं विरोध की भावना का विस्तार किया है। राजनेताओं ने इस भावना का भरपूर लाभ उठाया। राष्ट्रहित की अवहेलना कर हमारे राजपुरुषों ने भी जातिहित को सर्वोपरि माना, क्योंकि इसी माध्यम से वे राजनीतिक समर्थन तथा अन्ततोगत्वा राजनीतिक सत्ता प्राप्त करते हैं।


रजनी कोठारी ने इसी दृष्टिकोण को लेकर कहा है, “भारत में जिसे राजनीति में जातिवाद कहा जाता है वह वास्तव में जातियों का राजनीतिकीकरण से अधिक नहीं है।"एक परम्परावादी सामाजिक संरचना में आधुनिक राजीतिक संस्थाओं की स्थापना भारतीय लोकतन्त्र का अद्भुत पक्ष है। 


उदारवादी जनतन्त्रीय संस्थाओं और आधुनिक मूल्यों तथा मान्यताओं को अपनाने के परिणामस्वरूप भारतीय राजनीति और जाति व्यवस्था का पारस्परिक सम्बंध एक आश्चर्यजनक मोड़ पर है। जाति व्यवस्था भारतीय समाज का अटूट अंग रही है और इस राजनीति पर ही नहीं समाज के हर क्षेत्र पर प्रभाव डाला है।


स्वतन्त्रता के बाद इस प्रभाव में वृद्धि ही हुई है। भारत के राजनीतिक आधुनिकीकरण की प्रक्रिया की शुरूआत के साथ ही यह धारणा प्रबल हो गयी थी कि अब भारत में जातिवाद का लोप हो जाएगा, किन्तु गत आधे दशक से राजनीतिक, सामाजिक संस्थाओं की कार्यप्रणाली के अनुभव से इस बात का संकेत मिलता है कि भारत में जातिवाद की जड़ें गहरी हैं। 


इसके स्वरूप में परिवर्तन तो हो सकता है, किन्तु इसका विनाश सम्भव नहीं है। वास्तव में सामाजिक और राजनीतिक जीवन को एक-दूसरे से पूर्ण तथा पृथक् नहीं किया जा सकता है। ये अन्योन्याश्रित ही नहीं एक-दूसरे के पूरक भी हैं। 


यद्यपि स्वतन्त्रता के पश्चात् जातिवाद के परम्परावादी स्वरूप का विनाश हुआ तथा साक्षरता, सामाजिक चेतना, आरक्षण तथा आर्थिक विकास ने जातिवाद की कई बुराइयों को नष्ट किया है। आधुनिक प्रगतिशील वातावरण के परिणामस्वरूप पारस्परिक सम्पर्क में जातीय प्रतिद्वन्द्विता को दिया है। 



इस स्थिति में सुधार केवल कानूनी उपायों द्वारा सम्भव नहीं जब तक कि उसके अनुरूप मानसिक परिवर्तन न हो और इसके लिये हमें अपनी भावनाओं पर नियन्त्रण पाना होगा। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।