एक अंधे की आत्मकथा हिंदी निबंध | Autobiography of a blind person essay in hindi

 

एक अंधे की आत्मकथा हिंदी निबंध | Autobiography of a blind person essay in hindi


नमस्कार  दोस्तों आज हम एक अंधे की आत्मकथा हिंदी निबंध  इस विषय पर निबंध जानेंगे। इस लेख मे कुल २ निबंध दिये गये हे जिन्‍हे आप एक -एक करके पढ सकते हे ।यह क्या? आपने तो मेरी हथेली पर पूरा एक रुपया ही रख दिया। आप बड़े दयालु मालूम पड़ते हैं। मेरी एक विनती और सुन लीजिए। मैं बहुत दिनों से किसी दयावान व्यक्ति को आपबीती सुनाकर जी का बोझ हल्का करना चाहता था। मैं चाहता हूँ कि आप मेरी रामकहानी सुन लें।



वैसे नाम तो मेरा श्यामलाल है, लेकिन नेत्रहीन होने के कारण सभी मुझे 'सूरदास' कहकर बुलाते हैं। मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के एक छोटे-से गाँव में हुआ था। मेरे पिता की किराने की छोटी-सी दुकान थी। मेरी माताजी धार्मिक विचारोंवाली महिला थीं।



माता-पिता ने बहुत लाड़-प्यार से मेरा पालन-पोषण किया। मेरी पढ़ाई-लिखाई गाँव की ही प्राथमिक पाठशाला में हुई। मेरा कंठ बहुत सुरीला था। मुझे गाने का बड़ा शौक था। संयोग से आगे चलकर यही शौक मेरी जीविका का आधार बना।



गर्मी का मौसम था। मैं परीक्षा देकर घर आया था। उस समय चारों तरफ चेचक का भयानक प्रकोप फैला हुआ था। हमारा परिवार भी उसकी चपेट में आ गया। मेरे सारे शरीर पर चेचक के बड़े-बड़े दाने निकल आए। यहाँ तक कि आँखें भी अछूती नहीं बचीं। 



उन दिनों की प्रथा के अनुसार चेचक का प्रकोप शांत करने के लिए शीतला माता की विधिवत पूजा की गई। घर में पूरी स्वच्छता रखी जाने लगी। मेरे बिछौने पर रोजाना नीम की ताजा-ताजा, कोमल पत्तियाँ बिछाई जाने लगीं। इतने पर भी मैं लगभग एक सप्ताह तक असह्य वेदना से तड़पता रहा। जब चेचक का प्रकोप शांत हुआ, तो मेरी आँखों के आगे अँधेरा ही अँधेरा था। मैं अपने नेत्रों की ज्योति सदा के लिए खो बैठा था।



कहते हैं, विपत्ति अकेली नहीं आती। अपने नेत्रों की ज्योति तो मैं खो ही बैठा था, उसी वर्ष मूसलाधार बरसात के कारण हमारा घर भी गिर गया। घर के मलबे के नीचे दबकर मेरे माता-पिता एक साथ ही परलोक सिधार गए। अब मैं पूरी तरह से अनाथ हो गया। मेरी देखभाल भला कौन करता? लोग मुझ पर बहुत तरस खाते थे और मैं अपनी लाचारी पर कढ़ता रहता था।



जी चाहता था कि कहीं भाग जाऊँ। अंत में एक दिन मैंने अपना गाँव छोड़ ही दिया। मैं दर-दर भटकता रहा। कभी खाने को कुछ मिल जाता, कभी भूखे पेट सो रहता। मेरे सुरीले गीत सुनकर लोग खुश होकर चंद सिक्के दे दिया करते थे। इस प्रकार मेरे दिन कटने लगे।


नेत्रहीन होने के कारण मैं कोई काम तो कर नहीं सकता था। भीख मांगने पर कुछ पैसे मिल जाते थे। कभी-कभी लोग दत्कार भी देते थे। किंतु मैं विवश था। दर-दर भटकते हए एक दिन मैं इस मंदिर के दरवाजे पर आ पहँचा। तब से यहीं ठहर गया हूँ।



अब मैं इस मंदिर के पास ही बैठा करता हूँ। समीप ही एक बुढ़िया की झोंपड़ी है। उसी बूढ़ी माँ ने दया करके मुझे आश्रय दे दिया है। रोज सबेरे लाठी के सहारे चलता हुआ मैं इस मंदिर के पास आ जाता हूँ और दोपहर तक दाताओं की खैर मनाया करता हूँ। 



दोपहर को बूढी माँ जो कुछ रूखा-सूखा ले आती हैं, उसीसे पेट की ज्वाला शांत कर लेता हूँ। उसके बाद कुछ देर के लिए किसी पेड़ की छाया में या मंदिर के चबूतरे पर लेट जाता हूँ। फिर. उठकर मंदिर के पास अपनी जगह आ बैठता हूँ और दाताओं से याचना करने लग जाता हूँ। 



जब रात हो जाती है, तब लाठी टेकते हुए अपने आश्रय की ओर चल पड़ता हूँ। वहाँ पहुँचकर दिन भर की कमाई बूढ़ी माँ को सौंप देता हूँ और जो कुछ रूखा-सूखा वे देती हैं, उसे पेट में डालकर सो जाता हूँ। यही मेरी दिनचर्या है।कहते हैं, परमात्मा एक दरवाजा बंद करता है, तो कोई दूसरा दरवाजा खोल भी देता है। 



मेरे नेत्रों की ज्योति छीनने के पहले ही भगवान ने मुझे सुरीले कंठ का वरदान दे दिया था। जब मैं पायो जी, मैंने रामरतन धन पायो ' या हरि, मेरे अवगुन चित न धरो' गाने लगता हूँ, तो भक्ति-भावना में विभोर होकर लोग मेरी हथेली पर कुछ अधिक सिक्के रख देते हैं। उस दिन मैं कछ मिठाई खरीदकर बूढ़ी माँ के पास ले जाता हूँ और हम दोनों मिलकर त्योहार-सा मना लेते हैं।



अब तो मैं भिखमंगे की इस जिंदगी से ऊब गया हूँ। भिखारी की जिंदगी भी कोई जिंदगी है ! यह दुनिया बहुत स्वार्थी है। वह तभी तक आपका साथ देती है, जबतक आपसे उसका मतलब निकलता है। मतलब निकल जाते ही दूध की मक्खी की तरह वह आपका निकाल फेंकती है।



अब तो मेरी यह इच्छा है कि परमात्मा का गुणगान करते-करते मैं अंतिम सोसल जिससे मेरी जीवन-ज्योति उसकी परम ज्योति में मिल जाए। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए । और आगे दिया हुआ दूसरा निबंध पढ़ना मत भूलियेगा धन्यवाद  ।


निबंध 2

एक अंधे की आत्मकथा हिंदी निबंध | Autobiography of a blind person essay in hindi


ईश्वर की लीला अगाध है। वह सूत्रधार है और हम सभी मनुष्य उसके इशारों पर कठपुतलियों की तरह नाचते हैं। वह कभी हमें हँसाता तो कभी रुलाता है। हम नहीं जानते कि वह कब किसके साथ क्या खिलवाड करेगा। मुझे ही देखो न ! परमात्मा ने मुझे जन्म से ही अंधा बना दिया है। 


जी हाँ-मैं एक जन्मांध हूँ। इस दुनिया का उजाला मैं कभी देख नहीं सका। माँ के गर्भ में नऊ मास तक अंध:कार में रहा। इस संसार में कदम रखने के बाद भी उसने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। अब यही अंध:कार मेरा चिरसाथी बन गया है।


लेकिन मैं इससे दु:खी, निराश नहीं हूँ। ईश्वर की इच्छा के सामने किसका वश चलता है ? अगर आँखें होती तो मैं भी औरों की तरह पढ़-लिख सकता। रंगबिरंगी दुनिया देख लेता। अब तो केवल दुनिया के स्वर ही मेरे कानों पर पड़ते हैं। 


आँखें होती तो उनके नाना प्रकार आकार, रंग भी देख लेता। लेकिन भगवान की वैसी इच्छा नहीं है। ना सही। अधा हूँ लेकिन स्पर्श तथा गंध से सभी रिश्तेदार तथा परिचितों को पहचान सकता हैं। उनके पाँवो की आहट सुनता हैं। उनसे सुख-दुःख की बातें कर सकता हूँ। 


मेरे गाँव का हर गली-मोहल्ला, पेड-पौधा मुझसे परिचित हैं। मैं कहीं भी घूम-फिर सकता हूँ। ईश्वर ने आँखें नहीं दी। दो हाथ, दो पाँव, कान, नाक आदि सभी शरीर के अंग तो दिए हैं। उनका उपयोग मैं भली-भाँति कर सकता हूँ।बचपन में माँ-बाप ने मैं देख सकूँ, दृष्टिदोष दूर हो, इसके लिए कम कोशिश नहीं की हैं। 


ईश्वर ने मुझे आँखों की जगह आँखें दी थी, मगर उनमें रोशनी कहाँ थी ? माँ-बाप ने यह जब पहली बार समझ लिया तो वे बहुत दुःखी हुए। शहर में मुझे ले जाकर आँखों की अच्छी जाँचपरख की। बडे-बडे डॉक्टरों से सलाह-मशवरा किया। लेकिन कुछ भी हाथ न लगा। 


मैं ही अभागा था। जन्मांध निकला। इसमें किसी का क्या दोष ?लेकिन खुद को अभागा क्यों समझें? इस संसार में सभी को सब कुछ नहीं मिलता। किसी न किसी बात का गम रहता ही है। ईश्वर ने मुझे आँखें नहीं दी। लेकिन इस बात की कमी को अन्य अंगों द्वारा पूरा कर दिया है। 



मैं ठीक तरह सुन सकता हूँ। स्पर्श की भी आँखें होती हैं। बाहरी दृष्टि ही सब कुछ नहीं होती। मन की भी आँखें होती हैं। उनसे मैं सब कुछ देख सकता हूँ। इस अंतर्दृष्टी का पता मुझे अब हो गया है। महाकवि सूरदास भी तो जन्मांध थे। अंधे होकर भी उन्होंने अप्रतिम कृष्ण-भक्ति काव्य की रचना की। कृष्ण की बाल-लीलाओं का अनूठा वर्णन उनके काव्य में पाया जाता है। 


ईश्वर की कृपादृष्टि उन पर थी। सूरदास से मैं अपनी तुलना कैसे करू ? वे तो महात्मा थे। महाकवि थे। मैं तो एक मामुली अंधा हूँ। अन्य अंधों की तरह ही मेरा जीवन है। लेकिन इधर कुछ दिनों से परमात्मा के पावन स्पर्श का अनुभव करने लगा हूँ। 


अकेले में नित्य प्रभू का स्मरण करता रहता हूँ। उसकी लीला को देखता हूँ। कल्पना की आँखों से उसे देख भी लेता हूँ। शायद उसी का यह फल है कि अब कोई भी दु:ख, निराशा मन को छूता तक नहीं। कोई भी भय नहीं सताता। ईश्वर का सान्निध्य मुझे मिल गया है। दो वक्त की रुखी-सूखी रोटी की चिंता नहीं है। अब मैने निश्चय कर लिया है कि अंत तक ईश्वर-चिंतन में मग्न रहँगा। क्योंकि वहीं अब मेरा तारणहार है। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।