एक किले की आत्मकथा हिंदी निबंध | Ek kile ki atamkatha hindi nibandh

 

 एक किले की आत्मकथा हिंदी निबंध |  Ek kile ki atamkatha hindi nibandh

नमस्कार  दोस्तों आज हम एक किले की आत्मकथा हिंदी निबंध इस विषय पर निबंध जानेंगे। मैं पुरंदर का किला हूँ। मेरे परकोटों और बुों पर चढ़ने के लिए तुम अपने साथियों के साथ आए हो। शायद तुम्हें आश्चर्य हो रहा है कि पत्थर का किला कैसे बोल रहा है ! जब हृदय की व्यथा असह्य हो जाती है, तो कभी-कभी पत्थर भी बोल उठता है। क्या तुम सुनोग मेरी व्यथाभरी कथा? अच्छा, तो सुनो।



मैं एक पहाड़ी किला हूँ और समुद्र की सतह से लगभग १४०० मीटर की ऊँचाई पर स्थित हूँ। यह तो ठीक-ठीक नहीं बता सकता कि मेरा निर्माण कब हुआ, किंतु जो लोग पत्थरों की भाषा समझ सकते हैं, वे बताते हैं कि मेरा निर्माण बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में हुआ था। मुझ पर बहमनी वंश के राजाओं की बहुत कृपा रही है। 



बहमनी राजा अलाउद्दीन हसन गंगू ने मेरे परकोटे बनवाए, तो उसी वंश के महमूदशाह ने मेरे अर्धचंद्राकार बुओं का निर्माण करवाया। मेरे निर्माण कार्य और मेरी मरम्मत में मुगलों, पेशवाओं, अंग्रेजों आदि सभी ने समय-समय पर योगदान दिया है। आज जो मैं छह वर्ग किलोमीटर जगह घेरकर खड़ा हूँ, वह मेरे निर्माणकर्ताओं की कृपा का ही परिणाम है।



मुझ पर सदा किसी एक वंश के राजाओं का अधिकार नहीं रहा। अपने जीवन के प्रारंभिक काल में मैं बहमनी वंश के राजाओं के अधिकार में रहा। उनसे मुझे अहमदनगर के मलिक अहमद ने छीन लिया। फिर, लगभग एक शताब्दी तक मुझ पर निजामशाही का शासन रहा। निजामशाही के एक कर्तव्यनिष्ठ सरदार थे, मालोजी भोसले।



तत्कालीन निजामशाह ने मालोजी की सेवा से प्रसन्न होकर मुझे इनाम के रूप में उन्हें दे दिया। मालोजी भोसले के बाद मैं उनके पुत्र शहाजी राजे के अधिकार में आया। उन्होंने मुझे अपने पुत्र शिवाजी को सौंप दिया। शिवाजी महाराज के शासन-काल में मेरा महत्त्व बहुत बढ़ गया। 



उनके देहान्त के बाद मैं कुछ वर्षों तक मुगलों के अधिकार में रहा। मुगलों से फिर मुझे मराठों ने जीता और . उनसे अंग्रेजों ने। १५ अगस्त, १९४७ को अंग्रेजी शासन का अंत हो जाने के बाद मुझे आजाद भारत के खुले वातावरण में साँस लेने का अवसर मिला। तबसे मैं एक पर्वतारोहण प्रशिक्षण केंद्र के रूप में देश-विदेश के नौनिहालों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ हूँ।



मैंने अनेक भीषण युद्ध देखे हैं। आज उनकी यादें मन को कुरेद रही हैं। लेकिन जिस युद्ध की याद मेरे मन में आज भी ताजा है, वह था मुगल सरदार राजा जयसिंह के निर्देशन में मुगल सेनापति दिलेर खाँ और महाराज शिवाजी के बीच लड़ा गया युद्ध। इसी युद्ध में विजयी होकर मुगलों ने मुझ पर कब्जा किया था। उसके बाद शिवाजी महाराज ने मुगल सरदार जयसिंह से संधि की थी।



मैंने राज्य-विकास तथा प्रशासन में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। शिवाजी महाराज के शासन-काल में तो मेरी गणना उनके सबसे बड़े और सबसे मजबूत किले के रूप में की जाती थी। अंग्रेजों के शासन-काल में भी मैं महत्त्वपूर्ण सैनिक-केंद्र रहा और आज स्वतंत्र भारत में सैनिक-प्रशिक्षण केंद्र के रूप में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा हूँ।



अब युद्ध की दृष्टि से मेरे जैसे भारी-भरकम किलों की कोई उपयोगिता नहीं रह गई है। अपना महत्त्व कम हो जाने से मुझे खेद तो होता है, किंतु इस बात से खुशी भी है कि मुझे पर्वतारोहण प्रशिक्षण का केंद्र बना दिया गया है। मेरी यही इच्छा है कि देश-विदेश से आनेवाले प्रशिक्षार्थियों की खुली हँसी से मेरा प्रांगण हमेशा गूंजता रहे। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।