मन और आत्मा हिंदी निबंध
नमस्कार दोस्तों आज हम मन और आत्मा हिंदी निबंध इस विषय पर निबंध जानेंगे। प्रस्तावना-मन एक ऐसी पीड़ा है जिसको कोई-कोई समझ सकता है। वस्त्र रंगने में समय नहीं लगता, पर मन को रंगने में अनेक जन्म बीत जाते हैं। जब मन रंग जाता है तो वस्त्रों के रंगने का मन ही नहीं होता। मोह, आकांक्षा और अपेक्षा का रंग जितना फीका पड़ता जाता है, उतना-उतना मन उस अरूप और अरंग के रंग में रंगता जाता है। मन का रंगना परमात्म भाव में डूबने का प्रतीक है। संसार में आकर, उसमें कमलवत रहना, वीर महापुरुष का काम है। लेकिन माँ की कोख धन्य कर, वैराग्य में प्रवेश करना, अवतारी महापुरुष का आचरण है।
मानव इंद्रियाँ-मन और आत्मा दोनों अदृश्य सत्ता हैं। अनुभव के आधार पर सतोगुण से रंगे मन को आत्मा तथा रजोगुण व तमोगुण से आवृत्त सत्ता को मन कहकर समझाने का प्रयास किया गया है। इसीलिए अंग्रेजी के जानकार इसे ही उच्च मन (हाइपर आई) तथा निम्न मन (लोअर आई) कहते हैं। जो भी शब्द हम उस अदृश्य शक्तिशाली अस्तिस्व को व्याख्यायित करने के लिये प्रयुक्त करते हैं। मेरे अनुभव में, जब वह इंद्रियों के माध्यम से व्यक्त होता है
तभी मन कहलाता है अन्यथा वह आत्मा ही रहता है। इंद्रियों को वश में रखने के लिए मानव का मन भीतरी आत्मा से पूछता है फिर आत्मा जैसे कह देती मन उसी का अनुसरण करने लगता है; अर्थात् इंद्रियाँ जैसी प्रक्रिया भी मन के बिना कुछ कार्य नहीं कर सकती उसे मन के पीछे तथा मन को आत्मा के पीछे चलना पड़ता है।
इंद्रियों की सजगता ही संसार की अनुभूति कराती है। लेकिन जब ऐंद्रिक सत्ता के प्रति विरक्ति का भाव जगता है तब इंद्रियाँ तो रहती ही हैं, उनके द्वारा स्वाभाविक कर्म भी होते हैं, पर उनमें न तो सुख की कामना होती है और न उनके कर्म से दुःख का बोध। इस स्थिति को आध्यात्मिक वृत्ति का सद्गृहस्थ भी सतत् अभ्यास और साधना से प्राप्त करता रहा है।
जप और ध्यान-अभ्यास एवं साधना के लिए जप एवं ध्यान का मार्ग इसमें सहज रूप से सहायक है। भौतिकता की दौड़ और विज्ञान की अकल्पनीय सफलताओं ने भारतीय संस्कृति के चारों आश्रमों-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास को क्षत-विक्षत कर दिया है। इतना ही नहीं पूरे विश्व की मानवता नैतिक पतन के गर्त में पड़ी कराह रही है। मानव का नैतिक आधार रही नारी आज वस्तु हो गई है। वह आज बाजारों में बिकती है उसकी कीमत लगाई जाती है और बाद में वह एक वस्तु की भाँति खरीद ली जाती है।
इसी तरह परमात्मा भी मन की दीवार पर संस्कार वश लटका एक चित्र रह गया और नैतिकता लॉन पर फैली घास। ईश्वर का केवल नाम ही रह गया है। मानव यह नहीं समझता कि ईश्वर का जप एवं ध्यान करने से मन और आत्मा को शान्ति की प्राप्ति होती है। वह आने वाले जीवन में सुख का अनुभव करता है एवं अपने लक्ष्य को भेदने में सफल हो जाता है।
भजन का प्रथम उद्देश्य मन-संसार के असत्य को सत्य से जीता आदमी अंदर से अशान्त है और बाहर से क्लांत । इससे मुक्ति पाने का उपाय है शास्त्र का आश्रय और सद्गुरु की शरण। चेहरे रंगने वाले युग में कबीर के मन रंगने की बात, पिछड़ेपन का बोध कराने की मुक्ति नहीं है, बल्कि मन की अशांति एवं बाहरी क्लांति से मुक्ति पाने का सहज उपाय है। प्राणी मात्र से प्रेम, सत्य का अनुसरण तथा अहिंसा को जीवन में अपनाये बिना उस सांस्कृतिक विकृति से उबरा नहीं जा सकता जो आज के नैतिक द्वार का कारण है।
अगर ध्यान और जप भी जीवन में सम्भव न हो तो जो भी करो ईश्वर का मन में स्मरण करके करो। ऐसा करने का अभ्यास यदि सध गया तो धीरे-धीरे मन संस्कारित होने लगेगा। भजन का प्रथम उद्देश्य मन ही है, मन को उसमें लगाओ जो कि तुम्हें शान्ति प्रदान करे। उसकी दैविक, दैहिक, भौतिक आपदाओं से रक्षा करे। अंतिम लक्ष्य है मन को अपने इष्ट, आरध्य तथा प्रिय की सतत् याद में रंग लेना। आत्मोपलब्धि तो इसका अंतिम परिणाम कहलाता है।
- उपसंहार-मन हमारा मंदिर है मतलब कि हम पूजा करें या न करें लेकिन मन से एक बार ईश्वर का स्मरण जरूर करना चाहिये। मन को ईश्वर में लगाने से आत्मा को शद्धि मिलती है-और शुद्धि का अर्थ होता है कि दूसरों के प्रति अच्छा व्यवहार करना। इसलिये यदि हम दूसरो की सहायता करेंगे या उसे समझेंगे तो यह एक पूजा ही मानी जायेगी। अतः मनुष्य का मन एवं आत्मा दोनों ही शुद्ध होने चाहिये।दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।