परोपकार पर निबंध | essay on philanthropy in hindi

 

परोपकार पर निबंध | essay on philanthropy in hindi

नमस्कार  दोस्तों आज हम परोपकार पर निबंध इस विषय पर निबंध जानेंगे। प्रस्तावना-आज के मानव का अतीत उसकी मानवता का उत्तराधिकारी बनकर आने वाले मानव समाज के लिए नव मानवता का निर्माता है। मानव ने जन्म, पालन-पोषण, आदि सुविधायें समाज से अधिकारों के रूप में प्राप्त की हैं और उन्हें कर्त्तव्यों के रूप में उसे चुकाना है, एक तरफ समाज कुछ देता है, तो दूसरी तरफ उससे भी अधिक सामूहिक रूप से ग्रहण भी कर लेता है। अवएव मानव जीवन की सार्थकता लोककल्याण में ही है। 


उसका कर्त्तव्य परोपकार और त्याग के द्वारा लोक सेवा ही है, जिस प्रकार से एक आम की गुठली स्वयं मिट्टी में मिलकर एक विशाल वृक्ष का निर्माण कर देती है उसी प्रकार से मानव-जीवन की सार्थकता भी स्वयं के अस्तित्व को मिटाकर दूसरे के लिए परोपकार एवं त्याग की भावना रखती है।


परोपकार का शाब्दिक अर्थ-परोपकार शब्द का निर्माण दो शब्दों के मेल से हुआ है पर + उपकार । इसमें पर का अर्थ दूसरों के लिए एवं उपकार का अर्थ भलाई से है। अतः दूसरों की भलाई करना ही परोपकार कहलाता है।


भूखे-प्यासे को जल और भोजन देना, मरीजों की सेवा करना आदि सब परोपकार ही कहे जाते हैं। अगर कोई निःस्वार्थ किसी की सेवा करता है तो उसे भी परोपकार कहा जा सकता है। परोपकार की भावना प्रायः पशु, पक्षी, पौधे, वायु, नदी आदि में हमें देखने को मिलती है क्योंकि नदी बिना स्वार्थ के हमें प्यास से दूर करती है, पौधे फल देते हैं, वायु शरीर को राहत देती है-इसी प्रकार इस प्रकृति का हमारे ऊपर बहुत एहसान है।


उदाहरण के अनुसार, प्रकृति हमें परोपकार (परहित) का पाठ पढ़ाती है। विद्वानों के अनुसार, “आचारः परमो धर्मः"; अर्थात् आचार ही सबसे बड़ा धर्म है, आचार परोपकार का एक अभिन्न अंग है। अतः परोपकार की गणना भी हम सबसे बड़े धर्मों में कर सकते हैं। समाज किसी दुःखी प्राणी की सहायता करना मानव का सबसे बड़ा गुण कहा जाता है। जैसा कि तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में स्पष्ट कहा है कि सन्त वही है जो स्वयं दुःख का सामना कर दूसरों के दुःख को दूर करे। “परोपकाराय सतां विभूतयः” के अनुसार, सज्जनों का वैभव ही दूसरों की सेवा तथा हित करने में है।


परोपकार के अंग-परोपकार के मुख्यतः 6 अंग माने गये हैं, जो सेवा, दान, त्याग, प्रेम, उदारता, न्याय आदि हैं। ये अंग परोपकार के अति आवश्यक गुण माने गये हैं। इन गुणों का पालन करना ही परोपकार है और परोपकार का जन्मदाता प्रेम है। प्रेम के आधार पर ही तो समाज का निर्माण हआ है। “वसुधैव कुटुम्बकम" की भावना ही मानव हृदय में दया, उदारता, सहृदयता, त्याग आदि की भावनाओं को जन्म देती है।


परोपकार का एक अंग दान भी है। दीन-दुःखियों, याचकों की आवश्यकता करने से सुख-शान्ति का अनुभव होता है जो मनुष्य याचक को अपने दरवाजे से भूखा या खाली लौटा देता है उसकी गणना जीवित मनुष्य में नहीं की जाती। जैसाकि रहीम जी ने कहा है


“रहिमन वे नर मर चुके, जो कहुँ माँगन जाहिं।

उनसे पहले वे मुये जिन मुख निकसट नाहिं।।"

 प्रेम, उदारता, सहानुभूति, दया आदि परोपकारी व्यक्ति के स्वाभाविक गुण हैं। चरित्र में भी इन गुणों का अभाव होने पर त्याग की भावना का उदय होना असम्भव है, दया हृदय का अनमोल गुण माना गया है। इस गुण को धारण करने वाले का हृदय दर्पण के समान पारदर्शी होता है। सन्तों के अनुसार दया आत्मा का भोजन है। मानवता की बुनियाद दया ही है।


 मानव-जीवन की सार्थकता परोपकार-मानव-जीवन की सार्थकता परोपकार के गुणों को अंगीकार करने में है। उसका मुख्य कर्त्तव्य यह है कि वह अपनी उन्नति के साथ दूसरों की उन्नति का भी रास्ता खोजे। मनुष्य को यह भी सोचना चाहिये कि जो वस्तुएँ उसे दुःख देती हैं वह दूसरे के दुःख का भी कारण बन सकती हैं अतः उसे दूसरों के हित के लिए भी सोचना चाहिये। मनुष्य का धर्म है कि दूसरों के हित के लिए एवं निर्धनों की सहायता के लिए यदि उसका धन समाप्त हो जाये तो कोई दुःख की बात नहीं है।


 मानव यदि दूसरों की सेवा करेगा तो ही उसे ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है अन्यथा सब कुछ व्यर्थ है। दीन-दुःखियों को अपनाना ईश्वर को प्रसन्न करने के समान है। इसीलिए तो गीतासार में कृष्ण जी ने कहा है कि “कर्म करो फल की इच्छा मत करो"।


उपसंहार-विश्व का इतिहास परोपकारी व्यक्तियों की गाथाओं से भरा पड़ा है, दधीचि ऋषि ने देवों की रक्षा के लिए अपने प्राण तक दे दिये थे एवं उनकी अस्थियों से बनाये गये वज्र के प्रहार से राक्षसों का साम्राज्य समाप्त हुआ था एवं देवों का कल्याण हुआ। इसी तरह दानवीर कर्ण ने मरते वक्त भी अपने दाँत तोड़कर दान कर दिये थे। हमारे देश में दान, दया एवं परोपकार का शुरू से ही महत्व रहा है। जीवन को सफल बनाने के लिए परोपकार जैसा गुण मनुष्य में होना आवश्यक है। ऐसा कोई-सा हृदय नहीं है जो दूसरों के दुःख को देखकर द्रवित न हो जाये, अतः हम कह सकते हैं

"परहित सरिस धर्म नहि भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।"