दूर के ढोल सुहावने होते हैं पर निबंध | dur ke dhol suhavane essay in hindi

 

दूर के ढोल सुहावने होते हैं पर निबंध | dur ke dhol suhavane essay in hindi


नमस्कार  दोस्तों आज हम दूर के ढोल सुहावने होते हैं इस विषय पर निबंध जानेंगे। इस लेख मे कुल २ निबंध दिये गये हे जिन्‍हे आप एक -एक करके पढ सकते हे । इस लोकोक्ति का सामान्य अर्थ है कि दूर बजते हुए ढोल की आवाज सुनने में बड़ी अच्छी लगती हैं, लेकिन नजदीक पहुँचने पर उसका सुहावनापन गायब हो जाता है और वह अप्रिय लगने लगती हैं। जब हम किसी व्यक्ति या वस्तु की बहुत प्रशंसा सुनते हैं, किंतु संपर्क में आने पर उसे उतनी प्रशंसा के योग्य नहीं पाते, तो कहा जाता है कि 'दूर के ढोल सुहावने लगते हैं।'


कोई भी वस्तु दूर से सुंदर दिखाई देती हैं। इसका कारण यह है कि दूर स्थित वस्तु के दोषों को हम देख नहीं पाते। दूरी उसके दोषों पर परदा डाल देती है। लोगों से हम किसी के गणों की तारीफ ही सुनते हैं, उसके दोषों की चर्चा बहुत कम होती है। परिणाम यह होता है कि हमारे लिए उसका आकर्षण बढ़ जाता है। 



दूसरी ओर, उसकी तुलना में समीप की वस्तुएँ हमें तुच्छ लगने लगती हैं। लेकिन वास्तविकता कुछ और ही होती है। इसीलिए कहा है कि दरी मोहकता उत्पन्न करती है- 'Distance leads to enchantment.' समीप आने पर ही भले-बुरे की पहचान होती है।


बहुत दूर स्थित पर्वत-श्रेणियाँ अत्यंत मनोहर दिखाई देती हैं, किंतु निकट पहुँचने पर जब हम उनकी दुर्गमता देखते हैं, तो हाथ-पाँव फूल जाते हैं और हिम्मत जवाब देने लगती है। जब कोई व्यक्ति दया, क्षमा, उदारता आदि मानवीय गुणों के समर्थन में भाषण करता है, ।



तो उसे सुनकर हम बहुत प्रभावित होते हैं। दूसरे लोगों से उस व्यक्ति की तारीफ सुनकर हमें उसकी महानता पर विश्वास हो जाता है। किंतु जब हम उस व्यक्ति के निकट संपर्क में आते हैं और उसे अपनी पत्नी, बच्चों, नौकरों आदि से निर्दयता का व्यवहार करते देखते हैं, तो उसके प्रति हमारे हृदय में जो आस्था होती है, वह काफूर हो जाती है। हम उससे घृणा करने लगते हैं।


जब दूर के ढोल सुहावने लगते हैं, तब लोग अपने नजदीक के व्यक्तियों की उपेक्षा करने लगते हैं। वे अपने परिचितों अथवा स्वजनों के सदगुणों की भी उपेक्षा करने लगते हैं। कहा भी है कि घनिष्ठ परिचय अवज्ञा को जन्म देता है-'अति परिचयादवज्ञा भवति।' 


इतना ही नहीं, अपने स्वजनों या परिचितों के सामान्य दोष भी उन्हें बहुत बड़े दिखाई देने लगते हैं। घर के प्रति उनका लगाव कम हो जाता है और वे बाहरी दुनिया की चमक-दमक में खो जाते हैं। उन्हें देश की अपेक्षा विदेश अधिक प्रिय लगने लगता है। 


यह सच है कि विदेशी चीजों में बेहद आकर्षण होता है, किंतु अनेक स्वदेशी चीजें भी उत्कृष्ट कोटि की होती हैं। लोग अपने देश में लगी अच्छी-भली नौकरी या व्यवसाय छोड़कर जल्दी से जल्दी धनवान बन जाने की लालसा में अक्सर विदेशों की ओर दौड़ पड़ते हैं। 


भले ही विदेश में उनकी दुर्गति हो, पर वे स्वदेश में रहना पसंद नहीं करते। मध्य-पूर्व तथा खाड़ी के देशों में प्रवासी भारतीयों की दुर्दशा के समाचार अखबारों में अक्सर प्रकाशित होते रहते हैं, किंतु लोग इन देशों में जाने के लिए आतुर रहते हैं।



जिसे दूर के ढोल सुहावने लगते हैं, वह दुर्बल मन का व्यक्ति होता है। वह अपनी वर्तमान स्थिति से असंतुष्ट रहता है। वर्तमान स्थिति से असंतुष्ट रहकर आगे बढ़ने की कोशिश करना तो सराहनीय है, लेकिन बाहरी आकर्षण के फेर में पड़कर अपने हाथ में आई चीजें भी गवाँ बैठना अनुचित है। 



ऐसे व्यक्तियों पर 'आधी छोड़ सारी को धावै, आधी रहै न सारी पावै' की लोकोक्ति पूरी तरह लागू होती है। इस प्रकार की दुर्दशा से बचने के लिए हमें असमाधानी मनोवृत्ति त्याग देनी चाहिए। जो कुछ भी अपने परिश्रम से प्राप्त हो जाए, उसी में संतुष्ट रहना चाहिए। 


अपनी आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए पर्याप्त धन मिल जाने के बाद और अधिक धन प्राप्त करने की इच्छा त्याग देनी चाहिए। संत कबीर ने कहा है, जिनके मन में किसी प्रकार की अभिलाषा नहीं है, जिन्होंने संग्रह करने की इच्छा त्याग दी है, जो लोगों की निंदा या प्रशंसा की परवाह नहीं करते, वे बादशाहों के भी बादशाह हैं


'चाह गई, चिंता मिटी, मनुवाँ बेपरवाह।

जिनको कछू न चाहिए, वे साहन के साह।।


' इस प्रकार की भावना उत्पन्न होने पर ही दूर के ढोलों का सुहावना लगना बंद हो जाएगा। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए । और आगे दिया हुआ दूसरा निबंध पढ़ना मत भूलियेगा धन्यवाद  ।

निबंध 2

दूर के ढोल सुहावने होते हैं पर निबंध | dur ke dhol suhavane essay in hindi

संसार अनंत वस्तुओं का अनोखा भांडार है। कोई वस्तु सुंदर दिखाई देती है तो कोई कुरूप। सुंदरता और कुरूपता वास्तव में हमारे दृष्टिकोण पर अवलंबित रहती है। जिसमें जिसकी रुचि है, उसके लिए वही सुंदर है। रुचि न होने पर सुंदर वस्तु भी कुरूप लगती है। 


इस बात में जितनी सच्चाई है, उतनी ही सच बात यह है कि, दुनिया की हर वस्तु दूर से ही सुंदर दिखाई देती है। उस चीज को तुम जितना नजदीक से देखोगे, उतना सौंदर्य कम होता जाएगा। जब तक कोई चीज हमसे दूर होती है, अप्राप्य रहती है, तब तक ही हमें वह प्रिय लगती है। 


एक बार वह प्राप्त हुई कि, हमारी रुचि भी समाप्त हो जाती है। फिर हमें दूसरी ही, अर्थात् दूर की वस्तु प्रिय लगने लगती है। मनुष्य के बारे में एक विशेष बात यह है कि वह आकर्षण प्रेमी है। किसी न किसी वस्तु के आकर्षण में वह नित्य बँधा रहता है। 


उसे आकर्षित करने वाली वस्तु कुछ भी हो, लेकिन एक बात निश्चित है कि उसे बाहर का आकर्षण ही ज्यादा रहता है। यह आकर्षण चाहे शारीरिक हो या आर्थिक या चाहे कुछ और। मगर वह बाहरी आकर्षण का ही शिकार बहुत जल्दी होता है। यही देखिए न, जो पत्नी उसकी जीवन संगिनी होती है उससे ज्यादा लगाव उसे प्रेमिका से होता है! क्योंकि पत्नी तो हर समय उसके ही पास होती है। 


प्रेमिका कभी-कभी चोरी-छिपे मिलती है। कुछ लोग अपने देश की अपेक्षा परदेश से ज्यादा प्रेम करते हैं। इसके पीछे भी यही कारण है- बाहरी आकर्षण। बहुत से लोग ऐसे हैं, जिन्हें अपने रिश्तेदारों, परिजनों की अपेक्षा दूसरों से, पराईयों से ज्यादा लगाव रहता है। अपने लोगों की कोई भी बात उन्हें रास्स नहीं आती।


घर के प्रति लगाव कम रहना, देश की अपेक्षा विदेश प्यारा लगना इन सब बातों के मूल में एक ही तत्त्व है- दूर के ढोल सुहावने ! मनुष्य के मन में यह जो बाहर का आकर्षण ज्यादा रहता हैं, वह उचित नहीं है। यह बाहरी आकर्षण मनुष्य के मन की दुर्बलता का सूचक है। 


इससे उसकी असमाधानी मनोवृत्ति प्रकट होती है। हर बात में अतृप्ति, असमाधान मनुष्य के लिए घातक है। अपने हाथ में जो है उसे छोडकर जो भागता जा रहा है उसके पीछे पड़ने से क्या लाभ ? अपनी नौकरी छोडकर दूसरी पकडने से कभी-कभी पछताना भी पड़ता है।


'आधी छोड सारी को धावै, आधी रहें न सारी पावे' जैसी हमारी स्थिति हो जाएगी। कबीर ने कहा हैं"चाह गई चिंता मिटी, मनुवाँ बेपरवाह।जिनको कुछ न चाहिए सोसाहब का शाह।" इस प्रकार की भावना निर्माण होने पर दूर के ढोल सुहावने क्यों लगेंगे? दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।