एक अपाहिज की आत्मकथा हिंदी निबंध | ek apahij ki atmakatha hindi essay
नमस्कार दोस्तों आज हम एक अपाहिज की आत्मकथा हिंदी निबंध इस विषय पर निबंध जानेंगे। आप मेरी बैसाखियों की ओर देखकर दु:खी हो रहे हैं न? इस सहानुभूति के लिए मैं आपका आभारी हूँ। किंतु ये तो मेरी बाहरी बैसाखियाँ हैं। मेरी असली बैसाखियाँ तो मेरे मन के भीतर छिपी हुई हैं। वे हैं हिम्मत और आशारूपी बैसाखियाँ। आइए, आपको अपनी जीवनकहानी सुनाऊँ। उसे सुनने के बाद निश्चय ही अपाहिजों के बारे में आपके विचार बदल जाएँगे।
मेरा नाम रामेश्वर पांडेय है। उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले के एक छोटे से गाँव में मेरा जन्म हुआ था। मेरे पिताजी गाँव की प्राथमिक शाला में शिक्षक थे। मेरी माताजी बड़ी ही स्नेहशील महिला थीं। प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए मुझे गाँव की पाठशाला में भर्ती करा दिया गया।
पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ मैं खेल-कूद में भी निपुण था। सभी का यही कहना था कि एक दिन मैं बहुत बड़े पद पर पहुँचकर अपने गाँव का नाम रोशन करूँगा।
पर शायद भगवान को यह मंजूर नहीं था। बरसात का मौसम था। मैं स्कूल से भीगता हुआ घर लौटा था। घर पहुँचते ही सर्दी से काँपने लगा। कुछ समय बाद जब कँपकँपी रुकी, तो तेज बुखार चढ़ आया। चौथे दिन जब बुखार उतरा तो मेरे दोनों पैर पोलियो के आक्रमण से पंगु हो चुके थे।
माता-पिता ने बहुत दौड़-धूप की, लेकिन सब व्यर्थ रहा। मेरे पैरों की ताकत हमेशा के लिए चली गई और मैं बैसाखियों के सहारे जिंदगी बिताने के लिए मजबूर हो गया। अब शुरू हुआ मेरा संघर्षभरा जीवन ! माँ मुझे गोद में उठाकर स्कूल ले जाती और कक्षा में बिठा देती। जब स्कूल की छुट्टी होती, तो पिताजी मुझे गोद में उठाकर घर ले आते।
मेरे अन्य साथी लुकाछिपी, कबड्डी, हॉकी आदि खेला करते और मैं बैसाखियों का सहारा लिए दूर खड़ा देखा करता। अपनी असहाय अवस्था पर मुझे दुःख होता। खेल-कूद में भाग लेने में असमर्थ हो जाने पर मैं अपना अधिक से अधिक समय अध्ययन में व्यतीत करने लगा।
जब हाईस्कूल की परीक्षा में जिले भर में मैं सर्वप्रथम आया, तो सचमुच मेरे गाँव का नाम रोशन हो गया। मुझे सम्मानित करने के लिए अभिनंदन समारोह का आयोजन किया गया। इस समारोह के मुख्य अतिथि हमारे प्रदेश के कृषिमंत्री थे। उन्होंने स्वर्णपदक देकर मेरा अभिनंदन किया।
उस समय जब उन्होंने बैसाखियों पर टिके मेरे शरीर को देखा, तो वे दया से भर उठे। उन्होंने मुझे आश्वासन दिया कि मेरे भविष्य के लिए वे कुछ न कुछ अवश्य करेंगे।
अब पिताजी रिटायर हो चुके थे। उनकी मामूली-सी पेंशन मेरी कॉलेज की पढ़ाई का बोझ सँभालने में असमर्थ थी। अत: मैं आजीविका के लिए नौकरी खोजने लगा। किंतु मेरे जैसे अपाहिज को नौकरी कौन देता?
उन निराशा के दिनों में मुझे मंत्री महोदय की याद आई। उनकी सेवा में प्रार्थनापत्र भेजकर मैं उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा। करीब दो महीने के बाद उनका कृपापत्र आया। उन्होंने मुझे अपने बँगले पर बुलाया था। मैं उनके बँगले पर पहुँचा, तो वे बड़े प्रेम से मिले।
मेरी दयनीय स्थिति देखकर उन्होंने मुझे सरकारी सहायता के लिए आवेदन करने की सलाह दी। उनकी सलाह मानकर मैंने आवेदनपत्र भेज दिया। मंत्री महोदय की कृपा से तीन महीने के भीतर ही मुझे सरकार की ओर से एक टेलीफोन बूथ चलाने की अनुमति मिल गई। बूथ चलाने के लिए आवश्यक साधन-सामग्री भी मुझे सरकार की ओर से ही मिली।
इस टेलीफोन बूथ से मुझे जीविका चलाने भर की आय तो हो जाती है. कि आत्मसंतोष नहीं होता। मैं चाहता हूँ कि अपना कोई स्वतंत्र व्यवसाय चलाऊँ, ताकि और आमदनी हो सके, जिसके माध्यम से मैं अपाहिजों की अधिक से अधिक सेवा कर सकँ। मेरा विश्वास है कि मेरा यह स्वप्न अवश्य साकार होगा। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।