एक सैनिक की आत्मकथा पर निबंध | Essay on Autobiography of a Soldier in Hindi

 

एक सैनिक की आत्मकथा पर निबंध |  Essay on Autobiography of a Soldier in Hindi 

नमस्कार  दोस्तों आज हम एक सैनिक की आत्मकथा पर निबंध इस विषय पर निबंध जानेंगे। 

आप मेरे खादी के कुर्ते और धोती को देखकर मुसकरा रहे हैं। परंतु मैं तो इन्हें गंगा की धारा की तरह पवित्र मानता हूँ। मैं भारत के स्वतंत्रता-संग्राम में भाग लेनेवाला एक अदना सिपाही हूँ। क्या, आप मेरी जीवन-गाथा सुनना चाहते हैं? अच्छा, तो सुनिए।



मेरा नाम रामप्रसाद सिंह है। मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले के एक पास गाव में हुआ था। मेरे पिता परमेश्वर सिंह अपने गाँव के खाते-पीते. प्रतिक्षित किसान थे। मेरी माताजी स्नेहशील प्रकति की कार्यकुशल महिला थीं। 


पिताजी व्यायाम और कुश्ती के बड़े शौकीन थे। उन्हीं की कृपा से मुझे भी उत्तम स्वास्थ्य का वरदान मिला है, जिससे जीवन के पच्चासी वसंत बीत जाने पर भी अपनी जीवन-गाथा सनाने योग्य रह सका हूँ।


मैंने अपने गाँव की पाठशाला से मिडल स्कूल परीक्षा उत्तीर्ण की। उसके बाद आगे पढ़न के लिए मुझे इलाहाबाद भेजा गया। मझे शहर के प्रसिद्ध कॉलेज में प्रवेश मिला आर मेरी पढ़ाई-लिखाई सुचारु रूप से चलने लगी।




 जिस वर्ष मैं हाईस्कूल की परीक्षा देनेवाला था, उसी वर्ष गांधीजी इलाहाबाद पधारे। अपने मित्रों के साथ में भी उनका व्याख्यान सुनने गया। उनके हृदयस्पर्शी व्याख्यान का हम सब पर इतना प्रभाव पड़ा कि हमने विद्यालय का बहिष्कार कर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ने का निश्चय किया।




द्वितीय गोलमेज परिषद असफल हो चुकी थी। गांधीजी ने फिर से असहयोग आंदोलन प्रारंभ कर दिया था। हम लोग बड़े उत्साह के साथ आंदोलन में भाग लेने लगे। मैं नियमित रूप से प्रभातफेरियों में जाने लगा। अन्य स्वयंसेवकों के साथ मैं शराब की दुकानों पर पिकेटिंग करने जाता और विदेशी कपड़ों की होली जलाने में भी शामिल होता।



एक दिन सुबह के समय अपने साथियों के साथ मैं एक विलायती शराब की दुकान पर पिकेटिंग कर रहा था। दुकान के मालिक ने पुलिस बुलवा ली थी। पुलिस-दल का नेतृत्व एक अंग्रेज सार्जेंट कर रहा था। हमारे स्वयंसेवक-दल में महिलाएं भी थीं।


अचानक पुलिस ने हम लोगों पर बिना किसी चेतावनी के डंडे बरसाना शरू कर दिया। उस अंग्रेज सार्जेंट का बेटन मेरे साथ पिकेटिंग कर रही एक युवती के सिर पर पड़ा और उसके सिर से खून की धारा बह चली। मैं यह दृश्य देखकर अपने को रोक न सका और उस सार्जेंट से भिड गया। कुश्ती के दांव-पेंचों का माहिर तो मैं था ही, मैंने उसे उठाकर सीटे मारा। फिर लात-घूसों से उसकी अच्छी तरह मरम्मत की। इतने में चार सिपाहियों ने आकर मुझे पकड़ लिया और मैं हवालात में बंद कर दिया गया।

इस घटना के बाद ब्रिटिश सरकार ने न्याय का नाटक करके मुझे पाँच वर्ष के कठोर कारावास की सजा दे दी। सजा पूरी करने के बाद मैंने गांधीजी द्वारा सुझाया गया रचनात्मक कार्यक्रम चलाने का निश्चय किया। मैं खादी के प्रचार में लग गया। 



स्त्री-शिक्षा के प्रसार के लिए मैंने दो कन्याशालाओं की भी स्थापना की। इतने में १५ अगस्त १९४७ का सुनहरा दिन आया। देश में सदियों से छाया गुलामी का अंधकार दर और स्वतंत्रता के सूर्योदय में हमारे मन-मयूर आनंद से नाच उठे।



आजादी मिली, तो मन में बड़ी उमंग थी, बड़ा उत्साह था। किंतु देश की वर्तमान स्थिति देखकर हृदय काँप उठता है। सारे देश में जातिवाद, भाषावाद, क्षेत्रीयता, धर्मांधता आदि का जहरीला धुआँ फैला हुआ है। भ्रष्टाचार अपनी चरम सीमा पर है। आतंकवादी देश के टुकड़े करने की कोशिश में लगे हुए हैं। बेकारी और बेरोजगारी बढ़ती ही जा रही है। 



मन में बार-बार आशंका उठती है कि कहीं यह आर्थिक दुरवस्था हमें फिर से गुलाम तो नहीं बना देगी।

मैं अपने जीवन के पच्चासी वर्ष पूरे कर चुका हूँ। अब केवल यही इच्छा है कि मेरे जीवन के शेष दिन भी स्वदेश की सेवा में ही बीतें। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।