एक मजदूर की आत्मकथा हिंदी निबंध | majdur ki atmakatha in hindi nibandh

 

 एक मजदूर की आत्मकथा हिंदी निबंध | majdur ki atmakatha in hindi nibandh

नमस्कार  दोस्तों आज हम  एक मजदूर की आत्मकथा हिंदी निबंध इस विषय पर निबंध जानेंगे। सन की तरह सफेद मेरे सिर के बालों और ईंटों के बोझ से झुकी मेरी कमर को आप दया की दृष्टि से देख रहे हैं। शायद ताज्जुब कर रहे हैं कि इतनी ज्यादा उम्र हो जाने पर भी यह आदमी इतना बोझ कैसे उठा लेता है ? शायद आप सोच रहे हैं कि इसके कोई बेटा नहीं है


जो बढापे में इसे सहारा देता। आपका अनुमान सही है। मेरी उम्र पचास पार कर चुकी है और जब मेरी शादी ही नहीं हुई, तब बेटा कहाँ से होता ! क्या? मेरे बारे में कुछ और जानने की इच्छा आपके मन में जाग रही है। ठीक है. आइए यही बैल जाता है सुनाता हूँ



मैं दिहाड़ी पर काम करनेवाला एक मजदूर हूँ। मेरा नाम रामलाल है, लेकिन लोग मुझे 'रमुआ' कहकर बुलाते हैं। मेरा जन्म बिहार के एक छोटे-से गाँव में हुआ था। मैं जाति का हरिजन हूँ। मेरे पिताजी गाँव के एक ठाकुर के यहाँ हलवाहे का काम करते थे। मेरी माँ भी गाँव के संपन्न लोगों के घर उपले पाथने का काम करती थी। माता-पिता, दोनों निरक्षर थे। 



फिर भी वे शिक्षा का महत्त्व जानते थे। गाँव की ऊँची जातियों के विरोध और बिरादरी के लोगों के व्यंग्यबाण सहकर भी माता-पिता ने मुझे प्राथमिक पाठशाला में दाखिल कराया। बडा हआ और छोटा-मोटा काम करके कमाने लायक हुआ, तो पिताजी ने पाठशाला छडवा दी। मैं चौथी कक्षा से आगे नहीं पढ़ सका।



पिताजी चाहते थे कि मैं कहीं मजदूरी करके कुछ कमाऊँ और उनकी सहायता करूँ। मेरी उम्र तो अभी कम थी, लेकिन स्वास्थ्य बहुत अच्छा था। जिन ठाकुर के यहाँ पिताजी काम करते थे, उन्हें एक और मजदूर की जरूरत थी। पिताजी ने बात चलाई तो उन्होंने मुझे अपने यहाँ रख लिया। 



मेरा काम था उनकी गायों-भैसों को चराना, उन्हें नहलाना-धुलाना और उनके लिए चारा काटना। मुझे दोनों समय की रोटी मिलती थी और पहनने-ओढ़ने के लिए ठाकुर के घर के फटे-पुराने कपड़े।एक दिन, दोपहर को जब मैं घर पहुंचा, तो देखा कि वहाँ कुहराम मचा हुआ था। 



माँ छाती पीट-पीटकर रो रही थी और पिता की खून से सनी निर्जीव देह जमीन पर पड़ी हुई थी। गाँव के लोग उनकी अंत्येष्टि की तैयारी कर रहे थे। पता चला कि ठाकुर साहब के मरकहे बैल ने अचानक पिताजी के पेट में अपने सींग घुसेड़ दिए थे और उनका तत्काल देहांत हो गया था। 



जब पिताजी का दाह-संस्कार कर मैं घर लौटा, तो देखा कि माँ बेहोश पड़ी थी। तीन दिनों के बाद वह भी मुझे छोड़कर चली गई। अब गाँव में मेरा मन बिल्कुल नहीं लगता था। अंत में एक दिन अपने गाँव को अंतिम नमस्कार कर शहर की राह ली।



शहर आकर मैं और उलझन में फंस गया। मुझे ठीक ढंग से कोई काम करना तो आता नहीं था। लाचार होकर मैंने जो भी काम मिला, उसे करना शुरू किया। कभी ईंटें ढोता, तो कभी अनाज के बोरे गाड़ियों पर चढ़ाता। कभी स्टेशन पर कुली का काम करता, तो कभी ठेला खींचता। 


जब कोई काम न मिलता, तो स्टेशन के आसपास या फुटपाथ पर सो रहता। अनेक बार अपनी गाढ़ी कमाई के पैसे स्थानीय 'दादा' लोगों की भेंट चढ़ाने पड़ते। कभी-कभी निरपराध रहने पर भी पुलिस के डंडे खाने पड़ते। इस प्रकार का नारकीय जीवन जीते-जीते आज पच्चीस वर्ष बीत गए हैं।



अब तो मेरी हालत बदतर होती जा रही है। साथियों की मेहरबानी से शराब की लत पड़ चुकी है। इधर कुछ दिनों से जुए के अड्डे की तरफ भी जाने लगा हूँ। स्वास्थ्य भी तेजी से गिरता जा रहा है। 


अब मेरी केवल यही इच्छा बची है कि हाथ-पैर चलते-चलते ही मेरा जीवन-दीप बुझ जाए और मुझे किसी के सामने गिड़गिड़ाना न पड़े। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।