एक दहेज पीडित नारी की आत्मकथा | ek dahej pidit nari ki atamkatha hindi niban
नमस्कार दोस्तों आज हम एक दहेज पीडित नारी की आत्मकथा इस विषय पर निबंध जानेंगे। कई दिनों से देख रही हूँ कि जब मैं इन बच्चों को पढ़ाने आती हूँ, तब आप उत्सुकता से मेरी ओर देखने लगते हैं। शायद आप सोचते हैं कि यह तो किसी अच्छे घर की युवती लगती है, फिर किसी के घर आकर बच्चों को पढ़ाने का काम क्यों करती है? सोचती हूँ, अपनी व्यथाभरी रामकहानी आपको सुना ही दूं, ताकि आपकी उत्सुकता शांत हो सके।
मेरा जन्म बिहार राज्य के रोहतास जिले के एक छोटे-से गाँव में हुआ था। मेरे पिताजी एक प्राथमिक पाठशाला में शिक्षक थे। माता धार्मिक विचारोंवाली सीधी-सादी महिला थीं। तीन पुत्रों के बाद मेरा जन्म हुआ था। इसलिए मुझे माता-पिता का बहुत लाड़-प्यार मिला।
मेरे भाई भी मुझ पर जान देते थे। घर में खाने-पीने की कोई कमी नहीं थी। गाँव के प्राकृतिक वातावरण में मेरा बचपन बड़े सुख से बीता।
जब मैं कुछ बड़ी हुई, तो पिताजी ने मुझे गाँव की पाठशाला में भेजना शुरू किया। मैं पढने-लिखने में होशियार थी और सभी शिक्षक मुझसे खुश रहते थे। मेरे पिताजी थ तो साधारण शिक्षक ही, किंतु उनके विचार बहुत उदार थे। उन्होंने हर प्रकार से मेरी मिश्रा में सहायता की और मैंने अच्छे अंकों से हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण कर ला।आगे की शिक्षा के लिए किसी शहर में जाना पड़ता था।
मेरे चाचाजी पटना के एक कॉलेज में प्राध्यापक थे। पिताजी की इच्छा थी कि मैं उनके घर रहकर आगे की पढ़ाई करूँ। किंतु माताजी को यह पसंद नहीं था। नतीजा यह हआ कि मेरी शिक्षा वहीं रुक गई।
अब पिताजी के सामने मेरे विवाह की समस्या आई। मेरे योग्य वर की खोज में पिताजी ने जमीन-आसमान एक कर दिया। उनकी परेशानी देखकर मैं अपने-आपको कोसती थी, पर कुछ कह न पाती थी। आखिर उन्होंने मेरे लिए योग्य वर खोज ही लिया। वर महोदय बी.ए. पास थे और वाराणसी के बिक्रीकर कार्यालय में नौकरी करते थे। उनके पिताजी समीप के गाँव के एक संपन्न किसान थे। घर में किसी प्रकार का कोई अभाव नहीं था।
एक दिन मेरे घर के दरवाजे पर बारात आई और धूमधाम से मेरा विवाह हो गया। मेरे पिताजी थे तो साधारण शिक्षक ही, फिर भी उन्होंने दहेज में काफी सामान दिया। सुनने में तो आया था कि उन्होंने मेरे श्वसुरजी को नकद रुपये भी काफी दिए थे,
पर मैं इसके बारे में ठीक-ठीक नहीं जानती। अपने घर से विदा होकर ससुराल जाते समय मुझे जो दुख हुआ, उसे मैं शब्दों में नहीं प्रकट कर सकती।
खैर, मैं ससुराल आ गई और अपनी मेहनत तथा व्यवहार से सबको खुश रखने की कोशिश करने लगी। पर, विधाता की कुछ और ही इच्छा थी। जल्दी ही मेरी सास, ननदें और पतिदेव खुद, मुझे तरह-तरह से कष्ट देने लगे। तानों की बौछार तो होती ही थी,
कभी-कभी मार-पीट भी होने लगी। एक दिन तो सासजी ने गर्म चिमटे से मेरे शरीर पर जगह-जगह दाग भी दिया। कारण एक ही था-वे चाहते थे कि मैं अपने मायके से रंगीन टेलीविज़न और मोटरसाइकिल लाकर उनकी प्रतिष्ठा बढ़ाऊँ। मैंने दबी जबान से पिताजी को सारी बातें बताईं। लेकिन वे रिटायर हो चुके थे और पेंशन के सहारे जीवन बिता रहे थे। वे केवल आश्वासन देते रहे, किसी प्रकार की आर्थिक मदद नहीं कर सके। मैं भी उनकी विवशता समझकर चुप रही।
एक रात, जब सब लोग खा-पीकर सोने की तैयारी करने लगे, तो मैंने पास के कमरे में कुछ कानाफूसी सुनी। कान लगाकर सुना, तो काँप उठी। मेरी सास और ननदें मेरे पति पर दबाव डाल रही थीं कि मिट्टी का तेल डालकर मुझे जला दिया जाए। वे मुझे हमेशा के लिए रास्ते से हटा देना चाहती थीं, ताकि उनके बेटे की दूसरी शादी हो और उन्हें मुँहमाँगा दहेज मिले।
बस, उसी रात पौ फटने के पहले ही, मैं उस नरक-कुंड से भाग निकली और जगह-जगह ठोकरें खाती हुई इस शहर में आ पहुँची हूँ। यहाँ आप जैसे उदार लोगों की कृपा से दो-चार घरों में बच्चों को पढ़ाने का काम मिल गया है। इन्हीं ट्यूशनों के सहारे जिंदगी के बाकी दिन बिता देने का इरादा है। हाँ, ईश्वर से यही प्रार्थना करती रहती हूँ कि फिर भारतीय नारी के रूप में मुझे जन्म न दें। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।