एक फटी पुस्तक की आत्मकथा हिंदी निबंध | Ek phati pustak ki atamkatha hindi nibandh

 

एक फटी पुस्तक की आत्मकथा हिंदी निबंध |  Ek phati pustak ki atamkatha hindi nibandh

नमस्कार  दोस्तों आज हम एक फटी पुस्तक की आत्मकथा हिंदी निबंध इस विषय पर निबंध जानेंगे। 

मुझसे अलग पड़े हुए इस मुखपृष्ठ को देखकर तुम ठिठक क्यों गए? मेरे मुखपृष्ठ पर छपे श्रीराम तथा उनके भक्त कवि तुलसीदासजी के सुंदर चित्र ने शायद तुम्हारा ध्यान आकर्षित किया है। क्या मेरी जर्जर दशा देखकर तुम दुखी हो रहे हो? लगता है, तुम मेरे बारे में कुछ जानने के लिए उत्सुक हो। आओ, मैं तुम्हारी उत्सुकता शांत करने की कोशिश करती हूँ।



मेरी रचना प्रात:स्मरणीय गोस्वामी तुलसीदासजी ने की थी। अपने इष्टदेव श्रीराम के प्रति भक्ति-भावना से प्रेरित होकर समय-समय पर उन्होंने बहुत-से सुंदर पदों की रचना की थी। बाद में उन्होंने इन पदों के संग्रह के रूप में एक ग्रंथ का निर्माण किया। 


इस ग्रंथ में अन्य देवी-देवताओं की प्रार्थना के पद भी थे। इसलिए उन्होंने इस ग्रंथ का नाम रखा – 'विनय पत्रिका'। मैं वही विनय पत्रिका हूँ। मुझे गोरखपुर के प्रसिद्ध गीता प्रेस में छापा गया। मेरे साथ मुझ जैसी बहुत-सी प्रतियाँ छापी गईं। हमें सुंदर चित्रों से सजाया गया और आकर्षक रूप-रंग दिया गया। मेरी कीमत भी कम ही रखी गई, जिससे अधिक से अधिक लोग मुझे खरीद सकें।



इसके बाद मुझे बिक्री के लिए एक प्रसिद्ध पुस्तक-विक्रेता के पास भेज दिया गया। मुझे देखकर वह पुस्तक-विक्रेता बहुत प्रसन्न हुआ। उसने अपनी दुकान के विशाल शो-केस में मुझे सजाकर रख दिया। वहाँ मेरी दूसरी बहनें भी सजाकर रखी हुई थीं। 


मैं अपने आपको उनके बीच पाकर बहुत खुश हुई। उस पुस्तक-विक्रेता की दुकान पर खरीदारों का मेला-सा लगा रहता था। जब उनकी दृष्टि मुझ पर पड़ती, तो मेरे मनोहर रूप-रंग से वे बहुत प्रभावित होते। कुछ भक्त नर-नारी तो श्रद्धापूर्वक मुझे नमस्कार भी करते !



एक दिन एक सज्जन मुझे देखकर रुक गए। उस सज्जन ने दुकान के भीतर जाकर दुकानदार से कुछ बातें कीं। उन दोनों में क्या बातें हुई, यह तो मैं नहीं जान सकी, लेकिन जब वे बाहर निकले, तो मुस्करा रहे थे। दुकानदार ने मुझे और मेरी छह-सात बहनों को शो-केस में से निकालकर गुलाबी रंग के सुंदर कागज में लपेटा और उस सज्जन को दे दिया।


उसने हमें अपने झोले में डाला और वे दुकान से बाहर निकल आए। - उन महोदय ने विभिन्न विद्यालयों के विद्यार्थियों की एक अंत्याक्षरी-प्रतियोगिता का आयोजन किया था। वे इस प्रतियोगिता में यशस्वी विद्यार्थियों को पुरस्कृत करना चाहते थे। 



शीघ्र ही विदयार्थियों की एक अंत्याक्षरी प्रतियोगिता शुरू हुई। इस प्रतियोगिता में यशस्वा विद्यार्थियों को परस्कार के रूप में मझे और मेरी बहनों को दे दिया गया। म विद्यार्थी को दी गई, वह मुझे पाकर बहुत प्रसन्न हुआ।

वह विद्यार्थी और कोई नहीं, तुम्हारा मित्र अभय कुमार ही था। जब वह मुझे लेकर अपन घर पहुंचा, तो मुझे देखकर उसके माता-पिता बहुत प्रसन्न हुए। 



उसके पिताजी एक स्थानीय महाविदयालय में हिंदी के प्राध्यापक थे। वे प्रसन्न थे कि विनय' पत्रिका के पदों को पढ़ने से अभय कुमार के विचार पवित्र हो जाएँगे। अभय कुमार की माताजी धार्मिक विचारोंवाली महिला थीं। उन्होंने आदर के साथ मुझे अपने पूजाघर में स्थान दिया। वे प्रतिदिन मेरे पदों का पाठ करने लगी और अभय कुमार से भी पाठ करवाने लगीं। किंतु विधाता की लीला बड़ी विचित्र होती है।


एक दिन जब पूजागृह में कोई नहीं था. अभय कुमार के छोटे भाई निखिल और छोटी बहन सुधा ने उस कमरे में प्रवेश किया। अकस्मात उनकी दृष्टि मेरे सुंदर चित्रों पर पड़ी। फिर क्या था,


मुझे लेने के लिए उन दोनों में छीना-झपटी शुरू हो गई। उसी खींचातानी में चर्र ' की आवाज करती हुई मेरी जिल्द अलग जा पड़ी। यह देखते ही मुझे फेंककर वे दोनों भाग खड़े हुए। मेरी यह दशा देखकर अभय कुमार के माता-पिता बहुत दुखी हुए। उन्हें तो मेरे पदों का पाठ करने की आदत पड़ गई थी।

दूसरे ही दिन विनय पत्रिका' की एक नई प्रति इस घर में आ गई। तब से मुझे इस कोने में रख दिया गया है।

वास्तव में मनुष्य बहुत स्वार्थी होता है। जिससे उसका मतलब निकलता है,


उसी को वह महत्त्व देता है। फिर भी मैं निराश नहीं हूँ। इस कोने में पड़ी-पड़ी मैं सबको आशीर्वाद देती रहती हूँ। मेरी यही अंतिम इच्छा है कि मैं जीवन भर इसी घर में पड़ी रहँ और यहाँ के वातावरण को पवित्र बनाती रहूँ।दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।