शिक्षित बेरोजगार की आत्मकथा हिंदी निबंध | Shikshit berojgar ki aatamkatha hindi nibandh

 

शिक्षित बेरोजगार की आत्मकथा हिंदी निबंध | Shikshit berojgar ki aatamkatha hindi nibandh

नमस्कार  दोस्तों आज हम  शिक्षित बेरोजगार की आत्मकथा हिंदी निबंध इस विषय पर निबंध जानेंगे। कह दिना की बढ़ी दाढ़ी, घिसी-पुरानी मटमैली शर्ट, पैरों में रंग उडी हवाई चप्पले निस्तेज पीली आँखें और उदासीन चेहरा देखकर आपने मेरे बारे में जो अनुमान लगाया है, वह बिलकुल सही है। मैं एक शिक्षित बेरोजगार हूँ।


मेरा नाम अशोक कुमार है। किंतु मेरे जीवन में चिंता और शोक के अलावा और कुछ भी नहीं है। मेरा जन्म एक छोटे-से गाँव में हुआ था। मेरे पिता अपने गाँव के प्रतिष्ठित किसान थे। माता-पिता ने बड़े लाड़-प्यार से मेरा लालन-पालन किया।


प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए मुझे गाँव की पाठशाला में भेजा गया। मेरा स्वास्थ्य अच्छा था। खेल-कूद में मेरी खूब रुचि थी। गाँव की पाठशाला से मैंने मिडल स्कूल परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। मेरे पिताजी ने आगे की पढ़ाई के लिए मुझे समीप के शहर में भेजा। 


वहाँ एक रिश्तेदार के यहाँ मेरे रहने और खाने-पीने की व्यवस्था की गई। हाईस्कूल की परीक्षा में भी मैंने अच्छे अंक प्राप्त किए। इसलिए उसी शहर के एक अच्छे कॉलेज में मुझे प्रवेश भी मिल गया। उस कॉलेज से मैंने इंटरमीडिएट की परीक्षा द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की।


अब आगे पढ़ने का प्रश्न उठा। मेरे पिताजी ने अपने खेत बंधक रखे और मेरी आगे की पढाई का प्रबंध किया। मैंने इंटरमीडिएट तक की सभी परीक्षाएँ प्रथम अथवा दवितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की थीं। इसलिए मुझे आसानी से विश्वविद्यालय में प्रवेश मिल गया।


मैंने कला शाखा में प्रवेश लिया और स्नातक परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। दर्भाग्य से जिस दिन मुझे स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण होने का समाचार मिला, उसके दूसरे ही दिन अकस्मात पिताजी का देहांत हो गया। मेरे परिवार में मेरी माँ और एक अविवाहित बहन थी। 


हम लोगों पर तो जैसे विपत्ति का पहाड ही टूट पडा। मेरी पढाई-लिखाई वहीं समाप्त हो गई। में स्नातक की उपाधि तथा अन्य प्रमाणपत्र लिए नौकरी की खोज में दर-दर भटकने लगा। कभी शिक्षक-पद के लिए आवेदन करता, कभी रेलवे सर्विस कमीशन का फार्म भरता, तो कभी विभिन्न कार्यालयों में लिपिक की नौकरी पाने के लिए कोशिश करता। 


कई बार तो मैंने जी-जान से कोशिश की कि मुझे चपरासी की ही नौकरी मिल जाए। कई जगह साक्षात्कार के लिए भी बुलाया गया। लेकिन सभी जगह मुझे निराशा दी हाथ लगी। हारकर मैं अपने गाँव के एक सज्जन के साथ मुंबई चला आया। वे एक पोस्ट ऑफिस के बाहर एक मकान के सायबान तले टाट बिछाकर बैठते हैं।


 लोगों के मनीआर्डर, बीमे, तार आदि के फार्म भरा करते हैं। मैं आजकल उन्हीं की सहायता करता हैं। वे जो कुछ दे देते हैं, उसका अधिकांश माँ के लिए गाँव भेज देता हूँ।


अब मैं नौकरी पाने में अपनी असफलता का कारण समझ पा रहा हूँ। हम लोगों को केवल किताबी शिक्षा दी गई थी, व्यावसायिक शिक्षा से वंचित रखा गया था। आजादी मिलने के बाद व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त परिश्रमी युवकों की माँग बढ़ी, लेकिन मेरे लिए सब व्यर्थ था।


इसके अलावा चारों ओर भाई-भतीजावाद का बोलबाला है। सिफारिश तथा भ्रष्टाचार का बाजार गर्म है। मेरे पास न तो किसी महत्त्वपूर्ण व्यक्ति की सिफारिश थी, न रिश्वत देने के लिए मोटी रकम। लाचार होकर मैंने जीविका चलाने के लिए इस मार्ग को चुना है।


मेरा दृढ़ विश्वास है कि बेकारी को दूर करना है, तो किताबी शिक्षा के साथ-साथ व्यावसायिक शिक्षा भी दी जानी चाहिए। अन्यथा, शिक्षित बेरोजगारों की संख्या बढ़ती ही जाएगी। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।