श्रम की महत्ता पर निबंध | Essay on Importance of Labour In Hindi
नमस्कार दोस्तों आज हम श्रम की महत्ता पर निबंध इस विषय पर निबंध जानेंगे। इस लेख मे कुल २ निबंध दिये गये हे जिन्हे आप एक -एक करके पढ सकते हे ।जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में श्रम अनिवार्य है। जीवन कर्म का ही पर्याय है। मानव के चरित्र-निर्माण में अनेक गुणों की आवश्यकता होती है। मानव-जीवन में कर्म का स्थान अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। श्रम किए बिना जीना मनुष्य के लिए अभिशाप है। वास्तव में जन्म से ही न कोई व्यक्ति छोटा होता है न बड़ा।
व्यक्ति के अच्छे-बुरे कार्य ही मनुष्य की छवि बनाते हैं। अच्छी भावना से किया गया, ईमानदारी से किया गया प्रत्येक कार्य अच्छा होता है। आज देश में जो भयानक गरीबी व बेकारी विद्यमान है, उसका कारण यही है कि आज मनुष्य श्रम करने से घबराता है। वह कम-से-कम श्रम से अधिक-से-अधिक लाभ चाहता है, जबकि गीता में कहा गया है
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। श्रम का अर्थ और उसकी आवश्यकता-संसार में बिना किए कुछ भी नहीं होता। संसार में कर्म करना ही प्रधान है। हमारे देश में श्रम का महत्त्व आदिकाल से ही रहा है। हमारे पूर्वजों ने श्रम को पूजा के रूप में स्वीकार किया था। इसी का परिणाम था कि हमारा देश प्राचीनकाल में सर्वसाधन-संपन्न तथा धन-धान्य से परिपूर्ण था।
मनुष्य अपनी मेहनत से ही शोभायमान होता है। ईश्वर ने हमें जो शारीरिक व मानसिक शक्ति दी है, उसका उपयोग परिश्रम करने में ही है। श्रम से बचना ईश्वर का अपमान करना है।
राष्ट्रीय उत्थान और आत्मोन्नति के लिए श्रम तथा उद्यमशीलता की आवश्यकता है। आज समाज में गरीब-अमीर की जो असमानता है, वह श्रम के अभाव का परिणाम है। यदि सब श्रम करें तो ऊँच-नीच का भेद समाप्त हो जाएगा तथा कहीं भी धन तथा अन्न का अभाव नहीं होगा। महात्मा गांधी ने एक स्थल पर कहा है
मनुष्य को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए श्रम करना अपेक्षित है। अपने पसीने की कमाई खाने में जो आनंद है, वह परोपजीवी बनने में कहाँ? श्रम के प्रकार- श्रम को किसी परिभाषा में नहीं बाँधा जा सकता। श्रम हमारे जीवन का महत्त्वपूर्ण व्यावहारिक पहलू है। श्रम का अर्थ है मेहनत। श्रम के दो प्रकार कहे जा सकते हैं- (1) शारीरिक श्रम एवं (2) मानसिक श्रम। जो श्रम शारीरिक स्तर पर किया जाए, जिस कार्य को करने में शारीरिक शक्ति का व्यय करना पड़े, वह शारीरिक श्रम होता है।
जैसे बढ़ईगीरी, लुहारी, पत्थर तोड़ना, बोझा उठाना आदि कार्य शक्ति के बल पर किए जाते हैं। जिन कार्यों में मानसिक शक्ति लगानी पड़ी है, बुद्धि के सहारे काम किए जाते हैं, वह मानसिक श्रम कहलाता है। वकालत, डाक्टरी, अध्ययन, चिंतन मानसिक श्रम के अंतर्गत आते हैं। किसी भी कार्य को करने में दोनों प्रकार का श्रम करना पड़ता है। दोनों के सामंजस्य से ही व्यक्ति व समाज की उन्नति संभव है।
मानव-जीवन में श्रम का महत्त्व-जो व्यक्ति श्रम के महत्त्व को समझते हैं, उसके रहस्य को जान लेते हैं, उन्हीं को सफलता प्राप्त होती है। संसार में कोई भी वस्तु ऐसी नहीं, जिसे प्राप्त न किया जा सके, परंतु उसके प्राप्त करने के लिए श्रम की आवश्यकता होती है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में श्रम की महत्ता छिपी है।
श्रम से मानसिक संतुष्टि-श्रम मानव का अप्रतिम मार्गदर्शक है। मानव-मन स्वभावतः चंचल होता है। यदि उसे कर्म की ओर न लगाया जाए तो वह निर्बल और निस्तेज हो जाता है, जिसके कारण राष्ट्र व समाज की प्रगति अवरुद्ध हो जाती है। कहा भी गया है
मन के हारे हार है मन के जीते जीत।
श्रम से मन संतुष्ट होता है।
जब मन संतुष्ट होगा, तब हमारा प्रत्येक कार्य स्वयंसिद्ध होता चला जाएगा। श्रम-विहीन व्यक्ति शक्ति-संपन्न होते हुए भी भटक जाता है और निराशा के गर्त में गिर जाता है।कर्म की महिमा की स्थापना-यदि जीवन में श्रम तथा कर्म दोनों का समावेश कर लिया जाता है तो वह और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है। श्रम कर्मयोगी के जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग है। शरीर श्रम करने के साथ-साथ व्यक्ति को यह भी सोचना चाहिए कि जिस कार्य में वह श्रम कर रहा है, वह
कार्य देश या समाज के हित में है या नहीं। अतएव मनुष्य को बुद्धिपूर्वक शारीरिक श्रम करना चाहिए। वस्तुत: संसार में जितने भी परिवर्तन हुए हैं, वे कर्मठ, साहसी पुरुषों द्वारा ही हुए हैं। परिश्रमशील व्यक्ति श्रम करने से कभी घबराते नहीं
अटल रहा जो अपने पथ पर लाख मुसीबत आने पर।
मिली सफलता उसको जग में जीने और मन जाने पर।
स्वावलंबन-श्रमशील व्यक्ति कभी दूसरों पर आश्रित नहीं रहते। परिश्रम करने से व्यक्ति स्वावलंबी बनता है। रोटी और वस्त्र जीवन की प्राथमिक आवश्यकताएँ हैं। मनुष्य को इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए श्रम करना अपेक्षित है। स्वावलंबन के विषय में कविवर मैथिलीशरण गुप्त ने कहा
स्वावलंबन की एक झलक पर न्यौछावर कुबेर का कोष।
श्रम-द्वारा ही भाषा-निर्माण-संसार का प्रत्येक अच्छा कार्य कर्मठ व्यक्तियों द्वारा ही संपन्न किया गया है, भाग्यवादियों द्वारा नहीं। ईश्वर भी कर्मट व्यक्तियों की ही सहायता करता है, भाग्य के सहारे हाथ पर हाथ रखकर बैठने वालों की नहीं
यदि व्यक्ति दृढ़ता और संकल्प के साथ कार्य में जुट जाए तो स्वयं भाग्य भी उसके अनुकूल हो जाता है। समाज और राष्ट्र के उत्कर्ष में श्रम का महत्त्व-श्रम व्यक्ति के व्यक्तित्व को पूर्णता तथा सौंदर्य प्रदान करता है। श्रम चरित्र का निर्माण करता है। यदि समाज के व्यक्ति श्रमविहीन हो जाएँगे तो राष्ट्र श्रीहीन हो जाएगा।
जिस राष्ट्र के नागरिक तथा देश के कर्णधार श्रम में विश्वास करते हैं, उस राष्ट्र की अवनति असंभव है। श्रम किसी भी प्राणी-समाज या राष्ट्र के लिए वह आवश्यक गुण है, जो उस देश व समाज को उन्नति के चरमोत्कर्ष पर पहुँचाता है। श्रम का इतना महत्त्व है कि इसे धन से भी नहीं चुकाया जा सकता। प्रेम और श्रम का निकट संबंध है। परिश्रमी व्यक्ति सदैव प्रसन्न दिखाई देगा।
उसके लिए श्रम ही ईश्वर है। श्रम जीवन की धुरी है। श्रम से ही मनुष्य स्वास्थ्य-धन को प्राप्त करता है। श्रम जीवन की रहस्य-कुंजी है। श्रमहीन व्यक्ति अपना जीवन सफल नहीं कर सकता। राष्ट्र व समाज के लिए भी उसका अस्तित्व नहीं रहता। श्रम के विषय में एक विद्वान का कथन है
यदि तुम अपवित्रता और संसार-भर के पापों से बचना चाहते हो तो अपना कार्य खूब परिश्रम और चुस्ती से करो, चाहे तुम्हारा काम अस्तबल साफ करने का ही क्यों न हो।' दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।
निबंध 2
श्रम' शब्द का तात्पर्य है- मेहनत अथवा परिश्रम। श्रम' दो प्रकार का होता हैमानसिक और शारीरिक। जब कोई लेखक लेख, कहानी, कविता आदि लिखता है, तो वह मानसिक श्रम करता है। किसी विद्यार्थी द्वारा विद्याध्ययन भी मानसिक श्रम का ही एक रूप है। अपने जीवन के प्रत्येक क्षण में हम श्रम करते रहते हैं। इसीलिए अंग्रेजी के प्रसिद्ध साहित्यकार कार्लाइल ने कहा है, 'Labour is life', अर्थात् ' श्रम ही जीवन है'। यहाँ ' श्रम' शब्द से कार्लाइल का अभिप्राय शारीरिक श्रम से ही है।
श्रम करने में ही जीवन की सार्थकता है। मानव की सभ्यता तथा संस्कृति का विकास उसके श्रम का ही परिणाम है। फिर भी, हमारे देश भारत में शारीरिक श्रम करनेवालों को तुच्छ माना जाता है। शारीरिक श्रम करनेवालों की अपेक्षा शिक्षक, मुनीम, लिपिक आदि की अधिक प्रतिष्ठा होती है।
ऊँची कही जानेवाली जातियों के लोग शारीरिक श्रम के प्रति उपेक्षा का भाव रखते हैं। वे कोई ऐसा काम करना चाहते हैं, जिसमें उन्हें कम से कम शारीरिक मेहनत करनी पड़े। वे परिश्रम करने में अपना अपमान समझते हैं।
वास्तव में श्रम सफलता का मूलमंत्र है। हमें श्रम करने में गर्व और सम्मान का अनुभव करना चाहिए। जब हम अपना काम स्वयं करते हैं, तो हमें अनेक प्रकार के लाभ मिलते हैं। हमें आत्मसंतोष प्राप्त होता है। हमारा आत्मविश्वास बढ़ता है। हमारे भीतर स्वावलंबन का गुण विकसित होता है और हम आंतरिक शक्ति का अनुभव करने लगते हैं। श्रम करने से हमारा स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है।
मधुमेह, उच्च रक्तचाप, स्थूलता आदि व्याधियों से पीड़ित व्यक्तियों के लिए तो शारीरिक श्रम बहुत ही गुणकारी है। श्रमहीन जीवन निराशा से भर जाता है और भारस्वरूप प्रतीत होने लगता है। अपना काम करवाने के लिए दूसरों की प्रतीक्षा करते बैठे रहने से समय नष्ट होता है और हम परावलंबी बन जाते हैं। ऐसे परावलंबी लोगों की खिल्ली उड़ाते हुए एक कवि ने कहा है
श्रम से कभी नहीं दम फूला, आया जिनको नहीं पसीना, - सर्दी, गर्मी लगी न जिनको, ऐसे नर क्या जानें जीना? श्रम का सामाजिक पक्ष भी है। अनेक ऐसे सामाजिक कार्य होते हैं, जिन्हें सरकार नहीं कर सकती। उन्हें करने के लिए जनता के उत्साह और सहयोग की जरूरत होती है।
ऐसे कार्य करने के लिए श्रमदान आवश्यक होता है। श्रमदान देकर हम अपने समाज तथा देश का सवा कर सकते हैं। ऐसे सामाजिक कार्यों में श्रमदान करने से हमें आत्मसंतोष काअनुभव होता है।
यदि लोग श्रम के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण अपना लें और मेहनत-मजदूरी के काम करने में संकोच का अनुभव न करें, तो बहुत अंशों में बेरोजगारी की समस्या हल हो सकती है। इसीलिए हमारे देश की प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी ने नारा दिया था- 'कठोर परिश्रम का कोई विकल्प नहीं है।'
शारीरिक श्रम करनेवाला व्यक्ति अपने भीतर एक नई ताकत का अनुभव करता है। यह ताकत स्वावलंबन की होती है। इस ताकत के बल पर मनुष्य कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी धीरज नहीं छोड़ता। जिस समाज अथवा देश में श्रम की महत्ता को स्वीकार करनेवाले व्यक्तियों की प्रधानता होती है, वह समाज या देश स्वावलंबी बन जाता है और निरंतर प्रगति करता रहता है। जापान और इजरायल ऐसे देशों के अनुकरणीय उदाहरण हैं।
अपने देश की प्राचीन कलाकृतियों का वैभव देखकर हम आश्चर्यचकित हो जाते हैं। उनकी तुलना में वर्तमान युग की कलाकृतियाँ अत्यंत निम्न कोटि की प्रतीत होती है। इस गिरावट का प्रमुख कारण है, मानसिक एवं शारीरिक श्रम के प्रति हमारी उपेक्षा।
शारीरिक श्रम न करने से हमारा शरीर अनेक प्रकार के रोगों का घर बन जाता है। ऐसी स्थिति में हमारा मानसिक विकास भी रुक जाता है, क्योंकि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क रह सकता है। (Sound mind in a sound body.)
हमें श्रम करने में हीनता का अनुभव नहीं करना चाहिए। हमें सदैव याद रखना चाहिए कि 'कोई जाति तब तक समृद्ध नहीं बन सकती, जब तक वह यह नहीं मानती कि खेत जोतने में भी उतनी ही प्रतिष्ठा है, जितनी कविता रचने में।' दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।