जैसी करनी वैसी भरनी पर निबंध | jaisi karni waisi bharni essay in hindi

 

 जैसी करनी वैसी भरनी पर निबंध | jaisi karni waisi bharni essay in hindi

नमस्कार  दोस्तों आज हम जैसी करनी वैसी भरनी पर निबंध इस विषय पर निबंध जानेंगे। इस लेख मे कुल २ निबंध दिये गये हे जिन्‍हे आप एक -एक करके पढ सकते हे । 'जैसी करनी, वैसी भरनी' एक प्रसिद्ध कहावत है। इसका सामान्य अर्थ है, मनुष्य जैसा कर्म करता है, उसी के अनुसार उसे फल भी भोगना पड़ता है।


वास्तव में कर्म तो हम अपनी इच्छा के अनुसार कर सकते हैं, पर अपने कर्मों का फल भोगने के लिए हम विवश होते हैं। अगर हम बबूल के बीज बोएँगे, तो बबूल के काँटे ही हमारे हाथ लगेंगे। बबूल का पेड़ लगाकर, हम आम के मीठे फल खाने की इच्छा करें, तो वह कभी पूरी नहीं होगी।


लगभग सभी लोगों को अच्छे-बुरे का ज्ञान रहता है। लोग जानते हैं कि किस काम का अच्छा फल मिलेगा और किसका बुरा। इसलिए हमें हमेशा ऐसे काम करने चाहिए, जिनके परिणाम अच्छे हों, जिससे हमें सुख और संतोष मिले। ऐसे काम से सदा दूर रहना चाहिए, जिसका नतीजा बुरा हो और चिंता तथा कष्ट बढ़ाने वाला हो।


दुर्योधन अच्छी तरह जानता था कि पांडवों के साथ वह जो छल-कपट कर रहा है, उसका परिणाम बहुत बुरा होगा। गुरुजनों के समझाने-बुझाने का भी उस पर कोई असर नहीं हुआ। अंत में उसके दुष्ट कार्यों के फलस्वरूप कौरवों का विनाश तो हुआ ही, प्राचीन भारत की सभ्यता और संस्कृति को भी गहरा आघात पहुँचा।


रावण को अच्छी तरह ज्ञात था कि सीताजी का अपहरण करके वह बहुत ही अनुचित काम कर रहा है, लेकिन अपनी शक्ति के घमंड में उसने किसी के विरोध या उपदेश पर कोई ध्यान नहीं दिया। परिणाम यह हुआ कि सोने की लंका जलकर राख हो गई और विभीषण को छोड़कर रावण और उसके संपूर्ण कुल का विनाश हो गया।



जिस प्रकार यह कहावत किसी व्यक्ति के जीवन में सच्ची साबित होती है, उसी प्रकार किसी राष्ट्र या देश के जीवन में भी खरी उतरती है। जर्मनी के तानाशाह हिटलर ने अपने देश को विश्व का सिरमौर बनाने का स्वप्न देखा था।



स्वदेश-प्रेम तो उचित ही है, किंतु उसने अपनी इच्छा पूरी करने के लिए बहुत ही अनुचित मार्ग अपनाया। उसने लाखों की संख्या में निरीह यहूदियों का संहार करवा डाला, यूरोप के छोटे-बड़े राष्ट्रों को पराजित कर उन्हें जर्मन साम्राज्य में मिला लिया और द्वितीय विश्व युद्ध की भूमिका तैयार कर दी।



उसके दुष्ट कार्यों के फलस्वरूप, लगभग डेढ़ करोड़ नर-नारियों के रक्त से धरती लाल हो गई। अंत में जर्मनी की घोर पराजय हुई और उसके दो टुकड़े हो गए।


अकसर लोग अपने अनुचित कार्यों को उचित ठहराने के लिए धर्म का सहारा लेते हैं। संसार के किसी भी धर्म में अनुचित कार्यों का समर्थन नहीं किया गया है। लेकिन अनुचित कार्य करनेवाले लोग धार्मिक सिद्धांतों की व्याख्या भी इस प्रकार करते हैं, जिससे उनके स्वार्थों की पूर्ति हो। 


इसका एक उदाहरण अफगानिस्तान के तालिबान शासकों का है। वहाँ शरण लिए हुए ओसामा बिन लादेन के संकेत पर उसके आतंकवादी अनुचरों ने अमेरिका के न्यूयार्क नगर में स्थित 'विश्व व्यापार संगठन' की गगनचुंबी इमारत को विस्फोटकों का प्रयोग कर उड़ा दिया। 


इस आतंकवादी घटना में लगभग ६००० निरपराध व्यक्तियों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा, धन की असीमित हानि हई, सो अलग। जब अमेरिका ने तालिबान से माँग की कि वे संबंधित आतंकवादी व्यक्ति को उसे सौंप दें, तो वहाँ के शासकों ने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया।


इस भयानक कुकृत्य पर संसार के लगभग सभी देश क्षुब्ध हो गए। नतीजा यह हुआ कि अफगानिस्तान पर घोर बमबारी हुई। एक व्यक्ति ने दुष्टतापूर्ण कार्य किया और उसका बुरा नतीजा अफगानिस्तान के निरीह नागरिकों को भोगना पड़ा।


अपने अनुचित कार्यों को उचित ठहराने के लिए लोग अक्सर परिस्थितियों की दुहाई दिया करते हैं। वे कहते हैं, हमारे हाथ में तो कुछ भी नहीं है। हम तो परिस्थितियों के गुलाम हैं।


जैसी परिस्थितियाँ होती हैं, हम उन्हींके अनुसार कार्य करते हैं। उनकी यह दलील बिलकुल लचर है और मनुष्य की सामर्थ्य का मखौल उड़ाती है। प्रकृति ने मानव को बुद्धि का वरदान दिया है। उसे कल्पनाशील बनाया है और निर्णय लेने की क्षमता प्रदान की है। 


उसमें परिस्थितियों पर विजय प्राप्त करने की शक्ति है। उसे परिस्थितियों के सामने घुटने नहीं टेकने चाहिए, बल्कि उन पर विजय पाने का प्रयत्न करना चाहिए।


हमें इस कहावत को सदा स्मरण रखना चाहिए और किसी प्रकार का अनुचित कार्य करने के पूर्व उसके परिणाम पर विचार कर लेना चाहिए। जिस प्रकार दीपक स्वयं को जलाकर अपने आसपास के वातावरण को प्रकाशित करता रहता है, उसी प्रकार हमें भी अपने तन-मन-धन को मानवता की सेवा में लगा देना चाहिए, ताकि हमारा जीवन सार्थक हो। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए । और आगे दिया हुआ दूसरा निबंध पढ़ना मत भूलियेगा धन्यवाद 

निबंध 2

जैसी करनी वैसी भरनी पर निबंध | jaisi karni waisi bharni essay in hindi


प्रस्तावना-मानव का शरीर एक खेत के समान है, इसमें वह जैसा बीज बोता है, वैसी ही फसल काटता है; अर्थात् मनुष्य को जिस प्रकार की फसल की इच्छा हो, उसे उसमें वैसा ही बीज बोना चाहिए। अगर हम मानसिक दृष्टि से संसार को देखें तो हमें पता चलेगा कि कुछ लोग अच्छे बीज बोते हैं, तो कुछ लोग सड़े-गले रद्दी बीज बो देते हैं और कुछ लोग तो ऐसे हैं जो दोनों ही तरह के मिले-जुले बीज बो देते हैं।


अच्छे बीज का आशय अच्छे कर्म अर्थात् पुण्य कर्म से है, सड़े-गले बीज का आशय पाप कर्म अर्थात् गन्दे कर्मों से है एवं कुछ अच्छे व कुछ बुरे अर्थात् कुछ तो पुण्य कर्म और कुछ पाप कर्म मिश्रित बीज हैं; अर्थात् मनुष्य अगर अच्छे कर्म करेगा तो वह अच्छा फल (सुख) पायेगा और यदि वह बुरे कर्म करेगा तो बुरा (दुःख) फल पायेगा।



कर्म कैसे करें-हमें चाहिए कि जहाँ तक हो सके अच्छे ही कर्म करने चाहिएं, क्योंकि मनुष्य के सुख-दुःख का आधार उसके द्वारा किये गये कर्म पर ही होता है। हमारे सुखद और दुःखद फलों के भोग में दूसरे तो केवल निमित भर होते हैं, उन्हें श्रेय देना तो उदारता है, पर उन्हें दोष देना तो हमारी अज्ञानता है और अगर इसी बात को द्वितीय दृष्टि से देखा जाये तो ज्ञात होता है कि हम स्वयं ही अपने मित्र हैं और स्वयं के ही शत्रु हैं।



जब हम दूसरों पर अत्याचार करते हैं तो हम स्वयं के ही शत्रु हो जाते हैं, इसी प्रकार जब हम दूसरे के साथ सद्व्यवहार करते हैं तो हम स्वयं के मित्र होते हैं। इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर मनुष्य को ऐसे कर्म करने चाहिएं जो कि समाज भी उसकी सराहना करे एवं ईश्वर की भी उस पर कृपा दृष्टि बनी रहे।


जैसी करनी वैसी भरनी-मनुष्य जैसा करता है वैसा ही भरता है जिस प्रकार दूसरों का भला करना भविष्य में हमारे लिए सुख का मार्ग बनाता है। जबकि दूसरों का बुरा करना भविष्य में हमारे लिए दुःख के कांटे बोता है। यह सृष्टि का कार्य सम्बन्ध पर संचालित है।


यह आमतौर से जाना जाता है कि अच्छे काम का अच्छा एवं बुरे काम का बुरा नतीजा होता है। एक बार यह हो सकता है कि किसी बुरे काम का तात्कालिक रूप से अच्छा परिणाम दिखाई दे, किन्तु इस कलियुग में बुरा काम बुरा फल देकर ही रहता है।


इसी प्रकार यह हो सकता है कि कोई अच्छा काम वर्तमान में हमें किसी कठिनाई में डाल दे, किन्तु इस कलियुग में वह अच्छा परिणाम देकर ही रहेगा। किसी कर्म का फल कब मिलेगा, यह निश्चित कर पाना कठिन है। अतः मनुष्य इस कलियुग में जैसा करेगा वैसा ही भरेगा।


कर्म कर फल की इच्छा मत कर-जैसा कि भगवान श्रीकृष्ण ने भी बताया है कि कर्म ही मनुष्य का अधिकार है न कि फल। फल तो मनुष्य की अध्यक्षता में प्रकृति ही उसे प्रदान करती है। मनुष्य के लिए सबसे बड़ी पूजा या अधिकार तो यही है कि वह बिना फल की इच्छा के ही कर्त्तव्य समझकर अच्छे कर्म करता रहे, इससे मस्तिष्क पर फल की इच्छा का कंठित बोझ खत्म हो जाता है।


यह एक ऐसी दशा है, ऐसी स्थिति है जिसे संसार का प्रत्येक प्राणी चाहता है। सभी चाहते हैं कि हमारे सिर पर किसी प्रकार का बोझ न रहे, कोई तनाव (टेंशन) न रहे। हम सभी का अनुभव है कि जब हम किसी आशा में बँधे रहते हैं तो उसकी अग्रिम पूर्ति को लेकर मस्तिष्क में दबाव सा बना रहता है, तनाव रहता है 


अतः तनावमुक्त जीवन के लिए आशा न पालना सदैव अच्छा ही रहता है। सामान्य जनों के लिए ऐसी मनःस्थिति बना पाना शायद कठिन ही होगा, किन्तु आध्यात्मिक पुरुषों का तो यह सहज स्वभाव ही बन जाता है।


यह फल जो है यह केवल कर्मों पर ही निर्भर करता है लेकिन फल मिलता अवश्य है, इसीलिए आशा का अतिरिक्त बोझ रखने से कोई लाभ नहीं है। वास्तव में हम निरन्तर ही सुख-शान्ति की खोज में लगे रहते हैं। यह स्वाभाविक है। यही भावना हमें दूसरों से सम्पर्क स्थापित कराती एवं व्यवहार में लगाती है।


इस प्रकार सुख-शान्ति की प्राप्ति के लिए हमारा शारीरिक या मानसिक कर्म ही व्यवहार कहलाता है। हमारा यह व्यवहार या तो सद्व्यवहार होता है या दुर्व्यवहार । सबकी भलाई सदाचरण, सबको सुख पहुँचाना और परोपकार ही सत्कर्म है, यही पुण्य है।


उपसंहार-मनुष्य पहले बीज बोता है उसके बाद फसल काटता है, इसका मतलब पहले कर्म करता एवं बाद में उसे उन कर्मों का फल प्राप्त होता है, अगर हमें अच्छा फल चाहिए तो हमें ही कर्म करने होंगे; अर्थात् हम सड़े-गले बीज बोएंगे तो फसल हमारी अच्छी ही नहीं होगी। अच्छी फसल के लिए तो हमें अच्छे ही बीज बोने होंगे। अच्छे कर्म ही ईश्वर की प्राप्ति का मार्ग है, सफलता की कुंजी है। अतः अच्छे कर्म करो और अच्छा फल पाओ। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।