ऊर्जा संकट पर निबंध | urja sankat essay in hindi

 

ऊर्जा संकट पर निबंध | urja sankat essay in hindi

नमस्कार  दोस्तों आज हम ऊर्जा संकट पर निबंध  इस विषय पर निबंध जानेंगे। भारत ऊर्जा संकट की लम्बी सुरंग में प्रवेश कर चुका है। इसे समझने के लिए दो प्रकार के समाचारों पर ध्यान दिया जा सकता है। ये समाचार प्रतिदिन ही समाचार-पत्रों में पढ़े जाते हैं। पहली है राजधानी दिल्ली सहित अधिकांश शहरों में लगातार बिजली की कटौती की खबरें। 


दूसरी, पेट्रोलियम यानि तेल के मद में बढ़ते घाटे की। जब देश की राजधानी दिल्ली इतने गम्भीर विद्युत संकट से गुजर रही हो तो शेष भागों की स्थिति का अनुमान सरलता से लगया जा सकता है। उधर तेल के मद में बढ़ रहा घाटा 20,000 करोड़ तक पहुँच जाने का अनुमान है। यदि इस घाटे की समस्या को तुरन्त दूर नहीं किया गया तो देश को भुगतान संतुलन की समस्या का सामना करना होगा और इसका असर तेलों की आपूर्ति पर पड़ेगा। वैसे भी हमें पेट्रोल, डीजल और किरोसिन तेल की कमी का सामना करना ही पड़ता है।



ऊर्जा संकट के पहलू-किसी भी देश के आर्थिक विकास और जीवन-स्तर में सुधार के लिए ऊर्जा की भूमिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। रोचक बात तो यह है कि भारत में व्यावसायिक ऊर्जा (कोयला, तेल, बिजली) की खपत प्रति व्यक्ति विश्व के औसत का मात्र आठवाँ हिस्सा है। इसके बावजूद विद्युत, रेल और कोयले की आपूर्ति में लगातार बाधाएँ अब भारतीय अर्थव्यवस्था की मुख्य तत्व बन गयी हैं। ऊर्जा संकट के कारण हर क्षेत्र में उत्पादकता घटी है। उन्नति बुरी तरह प्रभावित हुई है। यह क्रम जारी है। एक अनुमान के अनुसार इस कारण देश को हर वर्ष उत्पादन के मद में 21,000 करोड़ रुपयों का घाटा सहना पड़ रहा है।


6 वर्ष पहले जब डॉ० मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्री के रूप में भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण की घोषणा की थी, तो दावा किया गया था कि इससे तीव्र उन्नति का मार्ग साफ होगा। उदारीकरण एक साल के अन्दर ही निजी क्षेत्रों में विदेशी तथा घरेलू कम्पनियों को विद्यत उत्पादन करने की अनुमति दे दी गयी, लेकिन आंध्र प्रदेश में एक लघु संयंत्र की स्थापना के अलावा इस दिशा में एक भी सफलता नहीं मिल पायी है। विद्युत परियोजनाओं का मामला पर्यावरण संरक्षण या भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों के कारण अटका हुआ है।


इसी तरह तेल उत्पादन के क्षेत्र में भी भारत विदेशी निवेश के लिए कई तरह के प्रोत्साहन घोषित हुए पर अभी तक कोई नहीं दिखता। ऊर्जा संकट से निपटने के लिए गैर परम्परागत ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा देने पर भी ज्यादा ध्यान नहीं दिया जा रहा है। इन असफलताओं के कारण भारत ऊर्जा संकट की अंधेरी सुरंग में पहुंच चुका है।


ऊर्जा संकट उत्पन्न करने वाले तत्त्व-भारत में ऊर्जा संकट के लिए मुख्य तौर पर कई तत्त्व जिम्मेदार हैं। ये हैं-ऊर्जा क्षेत्र में मूल्य निर्धारण की गलत-नीतियाँ, कुछ पेट्रोलियम उत्पादों पर अत्यधिक सब्सिडी, कृषकों को मुफ्त बिजली, भारत की उन्नति में ऊर्जा क्षेत्र में सार्वजनिक क्षेत्र का वर्चस्व, समन्वित योजना बनाने में योजना आयोग की अक्षमता, राज्य विद्युत बोर्डों की दयनीय स्थिति, भ्रष्टाचार आदि।


विदेश में जहाँ तेल और बिजली की दरों का निर्धारण बाजार की प्रतियोगिता के द्वारा तय होता है, वहीं भारत में ऊर्जा क्षेत्र पर सार्वजनिक विभागों का कब्जा है। यहाँ मूल्यों का निर्धारण मुक्त बाजार में नहीं बल्कि, राजनीतिक दबावों के आधार पर सरकार द्वारा होता है।


कुछ पेट्रोलियम उत्पादों पर दी जा रही सब्सिडी भी संकट में इजाफा कर रही है। सब्सिडी मुख्यतः कृषि कार्यों के लिए दी जाती है। किरोसिन, डीजल तथा बिजली के मद में सब्सिडी दी जाती है। कई राज्य सरकारें तो किसानों को बिजली मुफ्त भी देती हैं। कृषि क्षेत्र के लिए बिजली की सब्सिडी 1994-95 में 11,477 करोड़ रुपए थी। जो 1995-96 में बढ़कर 13,581 करोड़ और 1996-97 में 15,349 करोड़ रुपया हो गई है। तेल के मद में भी घाटा 15,500 करोड़ रुपया हो गया है। तेल तथा बिजली के क्षेत्र में होने वाला घाटा कुल वित्तीय घाटे का करीब 41 प्रतिशत होता है।


राज्य विद्युत बोर्डों को भी सब्सिडी का कहर सहना पड़ता है क्योंकि ज्यादातर सरकारें सब्सिडी वाली राशि का भुगतान बोर्डों को करने की चिंता नहीं करतीं। 1994-95 में राज्य विद्युत बोर्डो का घाटा 6,332 करोड़ रुपए था जो 1995-96 में बढ़कर 7,557 और मार्च, 1997 तक दस हजार करोड़ से भी ज्यादा हो गया।


दीर्घकालीन रणनीति की आवश्यकता-ऊर्जा संकट से निपटने के लिए भारत को शीघ्र ही एक दीर्घकालीन रणनीति तैयार कर लेने की जरूरत है। यह रणनीति कम-कम सन् 2010 की सम्भावित मांग को ध्यान में रखकर तय करने की जरूरत है। भारत की उन्नति और ऊर्जा की माँग के बीच सम्बन्ध, सन् 2010 में ऊर्जा की माँग पूरी करने में विभिन्न ऊजा स्रोतों की भागीदारी, माँग पूरी करने के लिए आवश्यक कदम, ऊर्जा क्षेत्र में उदारीकरण तथा निजीकरण की गति क्या हो, बढ़ते तेल आयात का राष्ट्रीय सुरक्षा तथा विदेशी नीति पर असर, गैर-पारम्परिक स्रोतों पर विचार, ऊर्जा संरक्षण, सब्सिडी प्रणाली में बदलाव तथा पर्यावरण का सवाल ।


हम दो स्थितियों पर विचार कर सकते हैं। पहली, अर्थव्यवस्था का विकास 5 प्रतिशत की दर से होने और दूसरी, 9 प्रतिशत की दर होने की स्थिति। अगर सभी गैर-पारम्परिक स्रोतों के साथ-साथ कोयला, परमाणु, प्राकृतिक गैस आदि का अधिकतम उपयोग किया जाए तो भी कम विकास (5 प्रतिशत) की स्थिति में तेल की आवश्यकता सन् 2010 में 16 करोड़ टन और ऊँची विकास दर की स्थिति में 52.5 करोड़ टन होगी। जबकि तेल की माँग सन् 195051 में 35 लाख टन थी, जो बढ़कर 1995-96 में 74 और 1996-97 में 81 करोड़ टन हो गयी। इस सदी के अंत तक यह मांग 111.3 करोड़ टन हो जाने की सम्भावना है।


तेल के आयात में कमी लाने के लिए सबसे पहले ऊर्जा की खपत कम करने की जरूरत होगी। या फिर तेल की खपत कम कर दूसरे स्रोतों का उपयोग बढ़ाना होगा। लेकिन तेल की खपत को नियंत्रित करने तथा भुगतान संतुलन बनाए रखने के लिए कहा जा रहा है कि बाजार की शक्तियों को वास्तविक मूल्य निर्धारण के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया जाये और सब्सिडी देने के तरीकों में परिवर्तन लाया जाये। पर यह सुझाव विवादों के ऊपर नहीं है।


भारत ज्यादातर तेल का आयात पश्चिमी एशिया के तेल उत्पादक तथा निर्यातके देशों से करता है। इन देशों में विश्व के कच्चे तेल भंडार का 76 प्रतिशत है। इनमें से भी मात्र पाँच देशों-सऊदी अरब, ईरान, इराक, कुवैत और संयुक्त अरब अमीरात के पास 63 प्रतिशत भंडार है। जब तक कि पक्का समझौता न हो भारत के लिए इन देशों पर निर्भर रहना सही नहीं होगा, भारत को तेल के आयात के लिए दूसरे कम महत्त्वपूर्ण देशों के साथ ही साथ मिलना चाहिए। इसके लिए रूस, वेनेजुएला, मैक्सिको, कोलम्बिया, अंगोला, नाइजीरिया आदि देशों के नाम उल्लेखनीय हैं।


तेलों के सम्बन्ध में घाटा कम करने के लिए किसानों को किरोसिन और डीजल पर दी जा रही सब्सिडी पर भी पुनर्विचार करने की जरूरत है। असीमित सब्सिडी को नियन्त्रित किया जाना चाहिए। फिलहाल मात्र किरोसिन तेल पर 6,000 करोड़ रुपयों की सब्सिडी दी जा रही है, घरेल गैस पर भी काफी ज्यादा सब्सिडी दी जा रही है। इसका अधिकतम फायदा मुख्यतः अमीर उठा रहे हैं। इस पर भी पुनर्विचार होना चाहिए और तरीका बदला जाना चाहिए। फिर भी देश में ऊर्जा का संकट लगातार बढ़ रहा है। 


बिजली जाने पर सभी शहरों में जेनरेटरों का उपयोग और परिणामतः डीजल की खपत बढ़ी है। पेट्रोलियम सचिव विजय केलकर के अनुसार जेनरेटर में डीजल की खपत के मामले में भारत सबसे आगे है। इस समय समूचा देश बिजली की कमी को सहन कर रहा है, जबकि विद्युत उत्पादन बढ़ाने और तेल की खपत कम करने की जरूरत है।


भारत अपनी उत्पादन क्षमता का चालीस प्रतिशत से ज्यादा उपयोग नहीं कर पा रहा है। इससे ऊर्जा संकट से निपटने में दिक्कत आ रही है। नई विद्युत परियोजनाओं की गति पर्यावरण तथा भ्रष्टाचार के सवालों के बीच बाधित है। इस समय देश में कई विद्यत परियोजनाओं में लगतार देर हो रही है।


यह काम अभी तक शुरू नहीं हो पाया है। 1040 मेगावाट वाले विशाखापट्टनम् प्लांट, नेवेली पावर प्रोजेक्ट (250 मेगावाट), भद्रावती (1072 मेगावाट) समेत अनेक छोटी-बड़ी परियोजनाओं का काम अभी तक आगे नहीं बढ़ पाया है। नतीजतन, विद्युत आवश्यकता की पूर्ति को प्रभावित कर रही है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि इन परियोजनाओं की मंजूरी, इनका काम सही अर्थों में गड़बड़ी से भरा है और इसी के चलते विरोध हो रहा है।


गैर-पारम्परिक स्रोतों से ऊर्जा हासिल करने और इसको बढ़ावा देने के लिए पूरे विश्व में प्रयास नहीं हो रहे हैं, लेकिन भारत में अभी तक इस दिशा में ठोस प्रयास नहीं हो रहा है, जबकि यहाँ इसके लिए पर्याप्त सम्भावनाएं प्रस्तुत हैं। सौर ऊर्जा, जल ऊर्जा, पवन ऊर्जा, बायो-गैस, समुद्री ऊर्जा आदि गैर-पारम्परिक ऊर्जा स्रोत हैं।ऊर्जा संकट से निपटने का अच्छा उपाय और भी है। यह है-जनसंख्या नियन्त्रण। पर वह अलग से चर्चा का विषय है। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।