वही मनुष्य है जो मनुष्य के लिए मरे पर निबंध | Vahi Manushya he ki jo Manushya ke liye mare nibhandh in hindi

 

वही मनुष्य है जो मनुष्य के लिए मरे पर निबंध | Vahi Manushya he ki jo Manushya ke liye mare nibhandh in hindi

नमस्कार  दोस्तों आज हम वही मनुष्य है जो मनुष्य के लिए मरे इस विषय पर निबंध जानेंगे। राष्ट्रकवि स्व. मैथिलीशरण गुप्त रचित उपर्युक्त पंक्ति का आशय है कि जो व्यक्ति दूसरों की भलाई के लिए अपना तन-मन-धन और जीवन अर्पित कर दे, उसी को सच्चे अर्थों में मनुष्य कहा जा सकता है। इस पंक्ति में कवि ने मानवजीवन के एक महान सत्य की ओर संकेत किया है, जिसका अनुसरण करने से व्यक्ति और समाज, दोनों की प्रगति होती है।



महान चिंतक अरस्तू के अनुसार मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज की उदारता से ही उसे शिक्षा-दीक्षा मिलती है। समाज के लोगों के सहयोग से ही वह उन्नति करता है, अपना आर्थिक विकास करता है और सुखी पारिवारिक जीवन व्यतीत कर पाता है। इस प्रकार, उसके ऊपर समाज का बहुत बड़ा ऋण होता है। 



इस सामाजिक ऋण से मुक्त होने के लिए उसके सामने एक ही मार्ग होता है और वह है परोपकार का मार्ग। समाज के दीन-हीन अथवा जरूरतमंद लोगों की भलाई करने तथा उन्हें मदद पहुँचाने से ही मनुष्य अपने सामाजिक ऋण से मुक्त हो सकता है। परोपकार ही वह महत्त्वपूर्ण साधन है, जिसके द्वारा हम अपने जीवन में सुख और शांति ला सकते हैं तथा मानवता का कल्याण कर सकते हैं।




आज वैज्ञानिक प्रगति के फलस्वरूप संसार के सभी राष्ट्र एक-दूसरे के समीप आ गए हैं और सारा विश्व एक इकाई बन गया है।



अतः आज सभी राष्ट्रों के लिए सहअस्तित्व अनिवार्य हो गया है। अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए हमें सेवाभावी और परोपकारी बनना जरूरी हो गया है। हमारे लिए यह आवश्यक हो गया है कि हम विषम परिस्थितियों में दूसरों की सहायता करें और अपने समाज, देश तथा संपूर्ण मानवता के कल्याण के प्रति अपने आपको समर्पित कर दें।



संपूर्ण प्रकृति परोपकार की भावना से परिचालित होती दिखाई देती है। नदियाँ अपना शीतल जल स्वयं नहीं पीतीं, दूसरों की प्यास बुझाने के लिए दे देती हैं। वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते, दूसरों की क्षुधा शांत करने के लिए दे देते हैं। गायें अपना दूध नोक-कल्याण के लिए प्रदान कर देती हैं।



इसी प्रकार, सज्जनों का सारा वैभव परोपकार लिए ही होता है। उनके लिए परोपकार से बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है और पर अपकार सबढकर दूसरा कोई अधर्म नहीं है। सज्जनों के जीवन के इसी आदर्श को व्यक्त करते हुए
गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है


'परहित सरिस धर्म नहिं भाई। 
परपीड़ा सम नहि अधमाई।।



मानव जाति के इतिहास में ऐसे अनेक परोपकारी महानुभावों के उदाहरण मिलते हैं, जिन्होंने दीन-दुःखी मनुष्यों के लिए कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। मानव जाति के दुःख से व्यथित होकर ही सिद्धार्थ कपिलवस्तु का राज्यवैभव त्यागकर सच्चे सुख और शांति की खोज में निकल पड़े।



उनके द्वारा चलाए गए बौद्ध धर्म ने सारी मानवता को कल्याण का मार्ग दिखाया। मानवता की वेदना से विकल होकर ही महावीर स्वामी ने परोपकार के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। 



करीतियों और अंधविश्वास के अंधकार में भटकती भारतीय जनता को ज्ञान का प्रकाश देने और सन्मार्ग दिखाने के लिए ही स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपना पूरा जीवन लगा दिया। परोपकार की भावना से प्रेरित होकर ही मदर टेरेसा ने समाज के उपेक्षित लोगों की सेवा के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया।




यदि हम सच्चे अर्थों में सुख और शांति प्राप्त करना चाहते हैं, तो हमें अपनी संकुचित स्वार्थभावना का त्याग करना होगा और उदार दृष्टिकोण अपनाते हुए परोपकार के मार्ग पर चलना होगा। वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ' यह वाक्य हमें सदा याद रखना होगा। दोस्तों ये निबंध आपको कैसा लगा ये कमेंट करके जरूर बताइए ।